Book Title: Bhagavana Kundakundacharya
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 52
________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य | 10 : चतुर्थ परिच्छेद में यह लिखकर इस विषयको संदिग्ध कर दिया है कि कुन्दकीर्तिने कुन्दकुन्दाचार्थसे द्विविध शास्त्रों का अध्ययन करके पटूवढागमके प्रथम तीनखण्डों की १२ हजार श्लोक परिमाण टीका निर्माण की । यह ठीक है कि धवलादि महती टीकाओंमें परिकर्म नामक टीकाका या टीकाकारका कोई उल्लेख नहीं है, न किसी और शास्त्र था शिलालेख में इसका व्योरा मिलता है । परन्तु इसका कारण संभवतः इस ग्रन्थका लुप्त होजाना या शास्त्रकारों और शिलालेखकों का इससे अपरिचित होना ही होसकता है । जब दोनों श्रुतावतारोंसे इस टीकाका संपादित होना सिद्ध होता है और विरोधात्मक कोई प्रमाण है नहीं तो यह निस्संदेह मान लेना चाहिये कि परिकर्म नामक टीका लिखी तो अवश्य गई, केवल साध्य विषय यह रह जाता है कि वह टीका श्री कुन्दकुंदाचार्यने लिखी जैसा इन्द्रनन्दि कहते हैं या विवुध श्रीधरके कथनानुसार उनके शिप्य कुन्दकीर्तिने । निस्संदेह कुंदकुंदस्वामी एक प्रौढ़ विद्वान, गम्भीर विचारशील, स्पष्टवक्ता और ओजस्वी लेखक थे । उनकी उपलब्ध रचनाओं में उस तर्कशैली और प्रतिवादक आवेशका अभाव है, जो समंतभद्र, पूज्यपाद, सिद्धसेनादि टीकाकारोंकी भावुक कृतियोंमें देखने में आता है । परन्तु यह कोई प्रमाण इस बात का नहीं हो सकता है कि परिकर्म भाष्य के कर्ता यह आचार्यवर नहीं थे, इनके शिष्य कुंदकीर्ति ही थे । प्रत्येक टीकाकारकी वर्णनशैली और विवेचन कला समान नहीं होतीं । अमृतचंद्रसूरि, जयसेनाचार्य जैसे गम्भीर विद्वान और सरल लेखक प्रसिद्ध टीकाकार हुये हैं और समन्तभद्रादि तार्किक विद्वान • स्वतंत्र ग्रंथकार भी थे। Its ३४ ] „ "

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