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भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य ।
[ १७ शिष्य थे या नहीं, इसपर इन गाथाओंके आधारपर विचार करने का बिल्कुल स्थान नहीं है ।
यह विषय सुनिश्चित है कि भगवान महावीर के निर्वाण लाभसे १६२ वर्ष वादतक अर्थात् विक्रम सम्बत्से ३०८ वर्ष पूर्वतक श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली का समय रहा ।
श्री आदिपुराण, हरिवंशपुराण, त्रिलोकप्रज्ञप्ति और श्रुतावतार आदि प्रामाणिक ग्रन्थों से यह भी सिद्ध है कि वीरात् ६८३ या वि० सं० २१३ के लगभग ही श्रीधरसेन और गुणधर अंगपूर्वाश वेदी आचार्योंने अपनी शेष आयु अल्प जानकर इस भयसे कि कहीं धर्मसिद्धान्तका भविष्य में न्युच्छेद न होजाय, अपने निजज्ञान तथा श्रुतविज्ञान के बलपर क्रमश. कर्मप्राभृत और कषायप्राभृतको सूत्रों में लेखबद्ध कराया ।
इससे ध्वनित होता है कि इससे पूर्व जिनेन्द्र भगवानका तत्वोपदेश भाषासूत्रों में ग्रथित होकर शब्द - विकारको प्राप्त नहीं हुआ था बल्कि श्रुतज्ञानी तथा अंग और पूर्वके ज्ञाता मौखिक उपदेशों द्वारा ही उस समयतक धर्ममार्गका प्रतिपादन करते रहे थे, और भव्यात्मा श्रोताजन तत्वचर्चाको वैसे ही घटस्थ कर लेते थे ।
गाथा ६१ में आचार्यवरने स्पष्ट कहा है कि भगवानका उपदेश जब सूत्रबद्ध होगया तो उसे अध्ययन करके इन्होंने उसका ज्ञान प्राप्त किया, और उसीके अनुसार इस प्राभृतमें कथन किया । इससे विदित है कि इन आचार्यवरके अस्तित्वका समय आद्य शास्त्रोंके रचना कालके " बाद ही था, जिसका स्वाभाविक निष्कर्ष यह निकलता है कि भद्रबाहु
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