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इनके अनुगत शास्त्रकार इनकी मौलिक रचनाओंसे अध्यात्मज्ञानकी शिक्षा पाकर इनका सदैव आभार मानते रहे हैं और इनके सिद्धान्त सम्बंधी वाक्योंको प्रमाणरूपसे अपनी महिमाप्रद कृतियों में निःसंकोच उद्धृत करते रहे हैं ।
भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य |
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जिसप्रकार वेदान्तिक साहित्यमें उपनिषिद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता तीनों प्रस्थानत्रयके नामसे प्रसिद्ध हैं वैसे ही इन आचार्य - चरकी तीन अद्भुत रचनायें समयसार, पंचास्तिकाय और प्रवचनसार प्राभृतत्रय या नाटकत्रय कहलाती हैं, और इन्हें सामान्यतः समस्त जैन संसार में और विशेषतः दिगम्बर जैन समाजमें वही सम्मान प्राप्त है जो वैदिक जगत् में प्रस्थानत्रयको है ।
इस प्राभृतका प्रणयन इन आचार्यवरने ऐसी योग्यता से सरल भाषा में किया है कि उनके किसी वाक्यसे तो क्या शब्द मात्र से भी सिद्धान्त विवेचनामें साम्प्रदायिकताका लेशमात्र भी भान नहीं होता, यही कारण है कि केवल दिगम्बर तारणपंथी श्वेताम्बर और स्थानक - चासी जैन ही अध्यात्मज्ञानकी प्राप्तिकी इच्छा से श्रद्धापूर्वक इन पवित्र रचनाओं का अध्ययन नहीं करते बल्कि अध्यात्म स्वाद के रसिक हजारों जैनेतर त्यागी तथा गृहस्थ विद्वान भी इन पुनीत कृतियोंका प्रेमपूर्वक अनुशीलन कर आंतरिक लाभ लेते, आज भी स्वदेश तथा परदेशमें देखे जाते हैं । }
भगवान महावीरके निर्वाणके बाद कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत नामक जिन महाशास्त्रोंकी रचना हुई वह विद्वत्समाज के लिये, ही विशेषतः पठनीय और मननीय थे, सर्वसाधारण उनसे यथोचित लाभ