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भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य।
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।। मंगलं कुन्दकुन्दाद्याः, जैनधर्मोस्तु मंगलं ।।
सर्वमान्य महत्व। इस नित्यस्मरणीय प्रसिद्ध श्लोक द्वारा अंतिम तीर्थंकर श्री भगवान महावीर और उनके मुख्य गणधर श्री इन्द्रभूति गौतमस्वामीके साथ२ ही इन आचार्यशिरोमणिका मंगलगान इनकी सर्वमान्य महत्ता और पूज्यताका स्पष्ट प्रमाण है।
कर्णाटक भाषाकी एक हस्तलिखित "गणभेद" सम्बन्धी पुस्तकसे जान पड़ता है कि धर्म प्रचारार्थ दक्षिण भारतमें दिगम्बर जैन मुनियोंके चार संघ स्थापित हुये थे, उनमें एक सेन संघके अतिरिक्त, जो श्री वृषभसेनका अन्वयी था शेष तीन नन्दि, सिंह और देवसंज्ञक संघोंका मुनि सम्प्रदाय अपनेको इन आचार्यवरका अन्वयी प्रसिद्ध होनमें अपना गौरव समझता था क्योंकि उस समय इन आचार्यवरकी 'तात्विक मर्मजता, सैद्धान्तिक विद्वत्ता, और संयमपरायणता जगत्विख्यात होचुकी थी, और लोकदृष्टिमें उच्चतम आदर प्राप्त कर चुकी थी।