________________
• १२] भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य।। तपश्चरण करके आचार्यपद प्राप्त किया, यह आचार्य हमारे चरित्र नायक श्री कुन्दकुन्दस्वामी ही थे।
ज्ञान प्रबोध वह कथा इस भांति लिखी है कि मनवा प्रांतस्थ चारांपुर नगरमें जहां राजा कुमुदचंद अपनी रानी कुमुदचंद्रिका सहित शासन करता था। कुंदनष्ठिकी धर्मपत्नी कुन्दलताकी कोखसे एक पुत्ररत्नका जन्म हुआ, जिसका नाम उन्होंने कुंदकुंद रक्खा । वह सेठपुत्र जब बाल्यावस्थामें अपने बाल-सखाओंके साथ खेल रहा था, तब उसे एक मुनिराजके धर्मोपदेश सुननेका सौभाग्य प्राप्त होगया, जिसके लिये जनता एकत्र थी।
मुनिश्रीके प्रवचनसे प्रभावित होकर वह श्रेष्ठिपुत्र उन्हीं मुनि. महाराजके साथ रहने और उनसे शिक्षा पाने लगा । अन्ततः जिनेश्वरी दीक्षा लेकर तप किया और आचार्यपद प्राप्त कर लिया।
इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावत्तारमें इन आचार्यवरको कोण्ड कुन्दपुर नगरका निवासी लिखा है। इससे विदित है कि दोनों आख्यायि. काओंमें इनका जन्मस्थान यथार्थ दिया है। इसके अतिरिक्त इन कथाओंकी प्रमाणिकता किसी प्राचीन आर्षग्रन्थसे सिद्ध नहीं होती।
स्वयं आचार्यवरने अपनी किसी रचनामें अपनी परिचयात्मक प्रशस्ति नहीं दी, न किसी और शास्त्रकारने इनके माता पिता, जन्मस्थान आदिके सम्बन्धमें कुछ निर्देश. किया।
संस्कृत भाषांके - पुण्याश्रवं कथा-कोशका जो हिन्दी अनुवाद हुआ है उसमें यह कथा नहीं है परन्तु नागराजने जो कर्णाटक भाषामें सन् १३३१ ई० में उसका उल्यो किया है, और उसका अनुवाद