Book Title: Bhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 36
________________ १८ भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक लिए यह भी सम्भव न था कि अपनी कमाई से पेट भर सके। पर क्योंकि वह कुरूप नहीं था, अतः रानी का प्रेम प्राप्त कर सकने में वह समर्थ हो गया। रानी के प्रभाव से लाभ उठाकर वह राजा का विश्वासपात्र बन गया और बाद में उसीने घोखे से राजा की हत्या कर दी। राजपुत्रों का संरक्षक बनकर उसने शासन के सर्वोच्च अधिकार प्राप्त कर लिए और फिर उन राजपुत्रों का भी उसने धात कर डाला। सन्दर्भित राजा (अग्रमीज ) इसीका पुत्र है। इन तथ्यों से यह प्रतीत होता है कि नन्दवंश क्षत्रियेतर था। वह नापित अथवा शूद्रकुलोद्भव था। हाथीगुम्फा-शिलालेख की एक पंक्ति में यह उल्लेख मिलता है कि कलिंगनरेश खारवेल मगध को जीतकर वहां से अपने पूर्वजों से छीनी गयी कलिंगजिन की मूर्ति को विजयचिन्ह के रूप में लेकर वापिस लौटा था। इस सन्दर्भ से यह स्पष्ट है कि नन्द नरेश ने अपनी दिग्विजय के समय जब कलिंग को पराजित किया था, तभी वह अपनी विजय के प्रतीक स्वरूप उस कलिंग-जिन ( अर्थात् आद्य तीथंकर ऋषभदेव ) की राष्ट्रिय मूर्ति को छीनकर पाटलिपुत्र में ले आया था, जिसका बदला लगभग ३०० वर्षों के बाद सम्राट खारवेल ने चुकाया । इतने दीर्घ अन्तराल में भी नन्दनरेशों के यहाँ उक्त मूत्ति का सुरक्षित रह जाना इस बात का सबल प्रमाण है कि वे जैनमूत्तिपूजक एवं जैनधर्मोपासक थे। चूंकि यह ईसा पूर्व द्वितीय सदी का शिलालेखीय प्रमाण है, अतः उसके आधार पर नन्द नरेशों के जैनधर्मानुयायी होने में भ्रम की कोई गुंजाइश दिखलाई नहीं पड़ती। पिछले प्रसंग में यह बतलाया जा चुका है कि नन्दवंशी राजाओं ने उत्तरपूर्वी राज्यों को भारतीय इतिहास में सर्वप्रथम एकसूत्र में बांधकर अपनी तेजस्विता एवं प्रताप-पराक्रम का परिचय दिया था। उनकी असाधारण सफलता, समृद्धि एवं कीति भी दिग-दिगन्त में चचित थी। ऐसे 'अतिबल', 'एकराट' 'एकच्छत्र' उपाधिधारी नन्द नरेशों ने जब निर्भीकतापूर्वक ब्राह्मणधर्म को उपेक्षा की और वे जैनधर्मानुयायी हो गये तभी सम्भवतः उस वंश को सुप्रतिष्ठा नहीं मिल सकी। इस विषय में सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० आर० के० मुकर्जी का यह कथन महत्त्वपूर्ण है। वे लिखते हैं कि-'In any case sixth and fifth centuries B. C. hold out strange phenomena before us १. हाथीगुम्फा शिलालेख-पं० १२ । २. Age of Imperial Unity. PP. 84-85. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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