Book Title: Bhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
टिप्पणियां
इतिहा:कार आचार्य तारानाथ के अनुसार बिन्दुसार ने चाणक्य को सहायता से १६ राज्यों पर विजय प्राप्त कर अपने साम्राज्य की सीमा पूर्व से पश्चिमी समुद्र तक विस्तृत कर ली थी। किन्तु जैन इतिहास अथवा भारतीय राजनैतिक इतिहास में ऐसे उल्लेख नहीं मिलते कि बिन्दुसार के राज्य-विस्तार में चाणक्य ने कोई सहायता की हो।
बिन्दुसार का दूसरा नाम अमित्रघात भी था । विभिन्न गवेषणाओं के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि बिन्दुसार की अनेक यवन-राजाओं से मित्रता थी। उसकी राज्य-सभा में पश्चिमी एशिया के राजा ऐंटियोकस ने मेगास्थनीज के स्थान पर डेईमेकस नामक राजदूत भेजा था। इसी प्रकार मिश्र ( Egypt ) के राजा टॉलिमी ने भी डायोनीसियस को अपने राजदूत के रूप में उसके यहाँ भेजा था।
बिन्दुसार ने लगभग २५ वर्षों तक राज्य किया और उसके बाद उसका पुत्र अशोक राजगद्दी पर बैठा।
९।१२. असोउ ( -अशोक )-चन्द्रगुप्त मौर्य ( प्रथम ) का पौत्र एवं बिन्दुसार का पुत्र । विश्व के इतिहास में सम्राट अशोक को जो प्रतिष्ठा मिली वह अन्य किसी सम्राट को नहीं । वह जितना वीर, पराक्रमी एवं लड़ाकू था, उतना ही राजनीति में दक्ष भी । अपने पुरुषार्य-पराक्रम से वह एक विशाल साम्राज्य का अधिपति बना, किन्तु इससे भी बड़ी उसकी दूसरी विशेषता यह थी कि समय आने पर उसने अपने संहारक-युद्ध को भी धर्मयुद्ध में बदल दिया। इस निर्णय मे उसे जरा-सी भी देर नहीं लगी। आगे चलकर उसका सिद्धान्त ही बन गया कि "सच्चा पराक्रमी वीर वह है, जो प्रजाओं के शरीर पर नहीं, हृदय पर शासन करता है।" इस सिद्धान्त को उसने यथार्थ भी कर दिखाया।
विश्व-बन्धुत्व के संयोजक सम्राट अशोक ने अपने शान्तिदूत एवं धर्मोपदेशक उन ५ यवनराज्यों में भेजे थे, जहाँ ऐंटियोकस (सोरिया ), टॉलिमी ( मिश्र), ऐंटिगोनस ( मेसिडोनिया), मेगस (सिरीनी) एवं एलेग्जेंडर ( एपिरस) नामक राजा राज्य करते थे। इसी प्रकार एशिया, अफ्रिका एवं योरुपीय महाद्वीपों से भी उसने घनिष्ठ सांस्कृतिक सम्बन्ध स्थापित किये थे। अपने साम्राज्य के सीमान्तवर्ती प्रदेशों में बसने वाले यवन, काम्बोज, गान्धार, राष्ट्रिक, पितृनिक, भोज, आन्ध्र एवं पुलिन्द आदि जातियों एवं केरलपुत्र, सत्यपुत्र, चोल, पाण्ड्य और सिंहल आदि स्वाधीन देशों के साथ भी उसने अपने सहज मैत्री-सम्बन्ध जोड़े थे।
अशोक ने अपने शिलालेखों एवं स्तम्भलेखों में अपने को 'देवानांप्रिय' एवं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org