Book Title: Bhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्रस्तावना
राज्याभिषेक के कुछ वर्षों के बाद ही चाणक्य ने जैनमुनिपद धारण कर लिया था, इसी कारण उन्होंने सम्भवतः उसके उत्तरवर्ती जीवन की उपेक्षा की। इस प्रसंग में सुप्रसिद्ध इतिहासकार राइस डेविड्स का यह कथन पठनीय है :-The Linguistic and Epigraphic evidence so far available confirms in many respects the general reliability of traditions current amongst the Jainas.
जैन-परम्परा के आधार पर चाणक्य का कार्यकाल अनुमानतः ई० पू० ३६० से ई० पू० ३३० के मध्य होना चाहिए । प्रत्यन्त राज्य, एवं उनके राजा
इतिहासकारों की शोध-खोज के अनुसार ई० पू० छठी सदी के पूर्वार्ध में भारतीय राजनैतिक एकता उतनी सुदृढ़ नहीं हो पाई थी, जितनी आवश्यक थी। विशेष रूप से पश्चिमोत्तर-भारत (१९४७ ई० के पूर्व ) की सीमाएं अनेक राज्यों में विभक्त थीं। राजाओं में परस्पर में ईर्ष्या एवं विद्वेष होने के कारण वे एक दूसरे को नीचा दिखाने या समाप्त करने का तो प्रयत्न करते थे, किन्तु एक सूत्र में बँधकर देशोत्थान का विचार नहीं कर पाते थे। यही कारण है कि भारतवर्ष को श्री एवं सौन्दर्य पर विदेशियों की वक्रदृष्टि पड़ो और अवसर पाकर वे कभी व्यापारियों के रूप में और कभी आक्रमणकारियों के रूप में भारतीय सीमाओं को अपने अधिकार में करते रहे । हेरोडोटस, टीसियस, एक्सनाफन तथा स्ट्रैवो एवं एरियन के विवरणों से उस पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । इनके अनुसार फारस के अखामनी राजाओं ने सर्वप्रथम भारतीय सीमान्त को अपने हाथ में लिया । सीमान्त पर विदेशियों को जमा रखने में परस्पर-विद्वष में उलझे उसके स्थानीय राजाओं का विशेष हाथ था।
सिकन्दर के आक्रमण के समय सीमान्त प्रदेश अनेक राजतन्त्रात्मक अथवा गणतन्त्रात्मक राज्यों में विभक्त था।
सिकन्दर के आक्रमण के समय वे परस्पर में युद्धरत थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि तक्षशिला-नरेश आम्भी की सहायता से सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया था।
दुर्भाग्य से उस समय उत्तर में ऐसा कोई चतुर एवं राष्ट्रीय-भावना वाला वीर-पराक्रमी सम्राट नहीं हुआ, जो सीमान्तवर्ती राजाओं को मगध के नन्दराजाओं के समान एक सूत्र में बांध पाता। वस्तुतः उनकी दुर्बलताओं ने यवनराज १. बुद्धिष्ट इण्डिया पृ० १६४, २७० ।
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