Book Title: Bhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक
आचार्य भद्रबाहु का स्वर्गारोहण । विशाखनन्दी
ससंघ चोल-देश पहुंचते हैं। -"जहाँ अनेक उत्तम श्रावक-जन निवास करते हैं और जो दान एवं पूजाविधि से निरन्तर अपने (धर्माचार ) को पोषित रखते हैं, वहीं पर मैंने एक घर में आज आहार-ग्रहण किया है।"
श्रुतकेवली भद्रबाहु ने उनका कथन सुनकर उनसे कहा-'हे भव्य, हे गुणाकर, बहुत भद्र ( कल्याणकर ) हुआ। हे व्रतसागर, अब मैं निःशल्य हो गया । अब तुम प्रतिदिन वहाँ जाकर विधि पूर्वक आहार ले लिया करो और अपनी शक्ति पूर्वक उपवास भी किया करो।" इस प्रकार विधिपूर्वक वह चन्द्रगुप्त-मुनि वहाँ ( आश्रम-गुफा में ) रहने लगे और घोर तपस्या करते हुए कायक्लेश सहन करने लगे।
श्री श्रुतकेवली भद्रबाह-ऋषि ने चेतन ( आत्मा ) का ध्यान करते हुए धर्मध्यान पूर्वक प्राण त्याग किये और स्वर्ग सिधारे ।
मुनिवर चन्द्रगुप्त ने भद्रबाहु का कलेवर ( मृतकशरीर ) शिलातल पर स्थापित कर दिया। पुनः उनके चरणों को विशाल भीट ( दीवाल ) पर लिख दिया ( उकेर दिया ) और उन्हें अपने चित्त के भीतर भी निधि के समान स्थापित कर लिया। वे उन गुरु-चरणों की सेवा करते हुए वहीं स्थित रहे । ठीक ही कहा गया है कि-"तीनों लोकों में गुरु की विनय ही महान् है ।" ।
पत्ता-उधर आचार्य विशाखनन्दि-श्रमण ( मुनि ) अपने संघ सहित चोल देश में पहुँचे और इधर जो-जो आचार्य पाटलिपुर में ठहर गये थे वहाँ (पाटलिपुर में ) अत्यन्त भयंकर दुष्काल पड़ा ( जिसका सामना उन्हें करना पड़ा)।॥१६॥
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