Book Title: Bhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 95
________________ भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक [ २२ ] दुष्ट साधुओं को प्रार्थना सुनते हो व्यन्तरदेव उन्हें दर्शन देकर अपना अनुयायी बनने तथा सचेलकता, स्त्री-मुक्ति एवं केवली-कवलाहार के प्रचार का आदेश देता है। साधु-समूह उसे स्वीकार कर स्वामिनी नामकी एक राजकुमारी को प्रशिक्षित करते हैं। -"हम सब अपने पद को बड़े कष्ट से पाल रहे हैं और विद्याभ्यास करकराके उसका पोषण कर रहे हैं । फिर भो हे देव, आपने हमें इस प्रकार मारने का उपक्रम क्यों किया ?" उनके वचन सुनकर वह व्यन्तरदेव बड़ा सन्तुष्ट हुआ और बोला-“यदि इसी समय से मेरे पवित्र निर्मल चरण-युगल की नित्य आराधना करना प्रारम्भ कर दो, नित्यप्रति मेरे नाम का उच्चारण किया करो और मुझे गुरु कहकर मेरा नैवेद्य के द्वारा पोषण करो तो मैं तुम्हारे सभी दोर्षों को क्षमा कर दूंगा। क्योंकि विनयगुण ही दोषों को क्षमा करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है ( इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं )।" तब उन मुनियों ने भी उस व्यन्तरदेव को उस आज्ञा को स्वीकार कर लिया और अपने मन में प्रसन्न होकर वह देव भी अपने स्थान पर वापिस लौट गया। उन साधुओं ने भी उस व्यन्तरदेव के चरण-युगल दारुपट्टी ( काष्ठ-फलक ) पर लिखकर वे त्रिकाल उसे प्रणाम कर पूजने लगे। वे सब वहाँ कम्बल धारण कर रहने लगे। ___ राग से उत्कण्ठित वे साधु कहने लगे कि-"विशाखनन्दो क्या मुनि कहला सकते हैं ? अब हम उनके चरणों की सेवा नहीं करेंगे । नग्नपना धर्म-विरुद्ध है", वे ऐसा ही निवेदन (प्रचार ) करने लगे। ( इतना ही नहीं) वे यह भी प्रचार करने लगे कि 'उसी भव से स्त्रो मोक्ष जाती है'। वे केवली को भोजन करनेवाला भी बताने लगे। यह भी कहने लगे कि "तिर्यञ्चों को मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न होता है'। वे प्रचार करने लगे कि 'जनता को नग्नदेव की पूजा नहीं करना चाहिए।' इस प्रकार उन पापियों ने एक भिन्न-मत (दूसरा मतसम्प्रदाय ) चला दिया और उसी समय से श्रावकों को भी ( अपना मत मानने के लिए ) दबाने लगे। पत्ता-तब किसी राजा की मधुरभाषिणी स्वामिनी नाम को कन्या को भी उन साधुओं ने पढ़ाया। आगे चलकर वही राजकुमारी भूतल पर ( उस नवीन मत में ) एक श्रेष्ठ दक्षमति ( पण्डिता ) के रूप में प्रकट ( प्रसिद्ध ) हुई ॥२२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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