Book Title: Bhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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टिप्पणियां
उक्त भद्रबाहु का समय ३९०-३६१ ई० पू० माना गया है। मगधनरेश सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) ने इन्हीं से जैन दीक्षा धारण की थी ( दे० श्रवणबेलगोल शिलालेख संख्या १७, १८, ४०, ५४ एवं १०८)। सुप्रसिद्ध इतिहासकार विसेंट स्मिथ ने भी इस उल्लेख का समर्थन किया है (दे० आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ इंडिया, पृ० ७५-७६ )। ( विशेष के लिए इस ग्रन्थ की प्रस्तावना एवं परिशिष्ट देखिए )।
१११ अंगधर ( अंगवारी)-द्वादश अंगों को धारण करने वाला। जैनपरम्परा में अंग (-आगम) साहित्य को महावीर की वाणी माना गया है । वह बारह प्रकार का है-(१) आचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) स्थानांग, (४) समवायांग, (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति-अंग, (६) ज्ञातृ कथांग, (७) उपासक दशांग, (८) अन्तःकृद्दशांग, (९) अनुत्तरोपपातिकदशांग, (१०) प्रश्नव्याकरणांग, (११) विपाकसूत्रांग एवं (१२) दृष्टिवादांग । ये सभी अंग-ग्रन्थ अर्धमागधी-प्राकृत-भाषानिबद्ध हैं । श्वेताम्बर जैन वर्तमान में उपलब्ध प्रथम ११ अंगों को प्रामाणिक एवं अन्तिम अंग को लुप्त मानते हैं, जबकि दिगम्बर जैन, केवल अन्तिम अंग को प्रामाणिक एवं प्रथम ११ अंगों को लुप्त मानते हैं।
उक्त साहित्य द्वादशांग-वाणी के नामसे भी प्रसिद्ध है। इसमें तीर्थंकरों की वाणी का संकलन रहता है। यह वाणी जिन्हें आद्योपान्त यथार्थरूप में कण्ठस्थ रहती है तथा जिन्हें उनका निर्दोष अर्थ भी स्पष्ट रहता है, उन्हें अंगधर या अंगधारी कहा जाता है । जैन-परम्परा में भ० महावीर के निर्वाण के बाद की अंगधारियों की परम्परा इस प्रकार है :
आचार्य नाम कितने अंगों के धारी काल (१) विशाखाचार्य- ११ अंगधारी ई० पू० ३६५-३५५ श्रुतावतार एवं १० पूर्वधारी
(इन्द्रनन्दिकृत) (२) प्रोष्ठिल
ई० पू० ३५५-३३६ (३) क्षत्रिय
, ३३६-३१९ (४) जयसेन (प्रथम)
, ३१९-२९८ (५) नागसेन
२९८-२८० (६) सिद्धार्थ
२८०-२६३ (७) धृतिसेण
२६३-२४५ (८) विजयसेन
२४५-२३२ (९) बुद्धिलिंग (या बुद्धिल)
२३२-२१२ (१०) मंगदेव या देव
, २१२-१९८ (११) धर्मसेन
, १९८-१८२
साक्ष्य
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