Book Title: Bhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक
[२० ] चन्द्रगुप्त मुनि के अनुरोध से आचार्य विशाखनन्दी भी कान्तारचर्या करते हैं और उसे चन्द्रगुप्त की तपस्या का प्रभाव जानकर उनके प्रति उत्पन्न अपने सन्देह को दूर कर उनके साथ ही पाटलिपुर की ओर
प्रस्थान करते हैं। उस संघ में एक क्षुल्लक-ब्रह्मचारी भी था। (संयोग से-) वह अपना कमण्डल वहीं पर भूल आया था। उसी ( कमण्डल को लेने ) के लिए वह ( क्षुल्लक ) जब पुनः वहाँ जाता है, तो वहां वह श्रावक गृह तथा नगर (आदि) कुछ भी नहीं देखता। हाँ, उसने एक वृक्ष की शाखा पर मधुर एवं पवित्र जल से भरे हुए उस कमण्डल को झूलता हुआ देखकर उसे उठा लिया। ___ पुनः उसने लौटकर अपने गुरु ( विशाखनन्दी ) से कहा कि-"( आज-) मैंने एक निरा आश्चर्य देखा है । (-जहाँ हम लोगों ने आहार लिया था वहाँ-) न तो वह नगर है, न वह घर है और न ही ( हम लोगों की ) क्षुधारूपी विपत्ति को टालनेवाले वे श्रावकगण ही हैं। ( पता नहीं-) वे सब कहां चले गये।" तब सांसारिक व्याधियों को नष्ट करनेवाले उन मुनिनाथ विशाखनन्दी ने उन मुनिराज चन्द्रगुप्त को प्रशंसा की और कहा कि-"इन्हीं मुनिराज चन्द्रगुप्त के पुण्य-प्रभाव से देवों ने इस अटवी के मध्य इस सुखकारी नगर का निर्माण किया था। हे चन्द्रगुप्त, तुम सचमुच ही सच्चे परम यतीश्वर हो, ( भद्रबाहु-) गुरु के प्रति सचमुच ही तुम्हारी महान् भक्ति है । सचमुच ही तुम अभंग व्रतधारी हो।"
इस प्रकार प्रशंसित उस भट्ट चन्द्रगुप्त के आगे सभी शिष्यों ने केशलुञ्च कर आलोचना की। गुरु विशाखनन्दी ने भी तत्काल उन्हें प्रत्यालोचना दी। पुनः अविरति-देवों द्वारा प्रदत्त जो आहार स्वयं ग्रहण किया था तथा संघ को लेने के लिए सहमति प्रदान की थी, उसके लिए भी दण्ड लिया तथा संघ को दण्डित किया। फिर उन सभी मुनिराजों ने चन्द्रगुप्त को प्रतिवन्दना प्रदान की और तब तप से क्लान्त वह मुनिसंघ विहार कर वहां से चल पड़ा।
घत्ता-श्रमण विशाखनन्दि-ऋषिवर अपने संघ सहित पाटलिपुर ( पाटलिपुत्र ) आ पहुँचे। उन्हें देखकर श्रावकजनों ने महान् उत्सव किया और उन सद्गुणियों को आसन पर विराजमान किया ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org