Book Title: Bhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक
[ १५ ] कान्तार-चर्या में सिद्धान्त विरुद्ध साधन-सामग्री देखकर चन्द्रगुप्त मुनि को लगातार अन्तराय होता रहता है किन्तु
चौथे दिन उन्हें निर्दोष आहार प्राप्त हो जाता है। उस यक्षिणी ने कंकण एवं कटक से विभूषित अपने हाथों में धारण किये हुए छहरस सहित चार प्रकार के आहार उन मुनिराज को दिखलाये। उन्हें देखकर बहुगुणी मुनिवर चन्द्र गुप्त ने अपने मन में विचार किया कि यह अयुक्त है ( ठीक नही है, इसमें कुछ गड़बड़ है ), अतः उन्होंने आहार ग्रहण नहीं किया । उसे अलाभ (अन्तराय ) मानकर लौट गये । गुरु के निकट जाकर, प्रणाम कर उन्हें वह समस्त वृत्तान्त कह सुनाया और प्रत्याख्यान लेकर स्थित हो गये। दूसरे दिन उन्होंने पुनः वन-भ्रमण को ( कान्तारचर्या को ) उत्कण्ठा की और जब वे अन्य दूसरी दिशा में पहुँचे तब उन्होंने वहां सिद्ध की हुई ( तैयार ) रसोई देखी, जो नाना प्रकार के रसों से युक्त थी। किन्तु वह रसोई ( शाला ) बिना युवती के थी। इसी कारण मुनिराज ने उस पर तत्काल विचार किया और उस दिन भी अन्तराय हुआ मानकर वे गुरु के आश्रम में लौटे और अभिवादन कर उनको समस्त वृत्तान्त निवेदित किया । तब मुनि भद्रबाहु ने उन चन्द्रगुप्त को भव्य-भव्य ( बहुत-ठीक-बहुत ठीक ) कहा, पुनः चन्द्रगुप्त पवित्र भावना से ( सम-वीतराग परिणामों से ) उपवास धारण कर स्थित हो गये। अन्य ( तीसरे ) दिन वे चन्द्रगुप्त मुनि अन्य दिशा में कान्तार-चर्या हेतु गये। वहीं वन के बीच में उन्होंने एक अकेली स्त्री देखी । उस अकेली स्त्री ने अपने हाथों में जलयुक्त मिट्टी का घड़ा लेकर उनका "ठा-ठा" ( अत्र तिष्ठ-अत्र तिष्ठ आदि ) कहकर पडगाहन किया । 'अकेली स्त्री से आहार लेना भी अयुक्त है', ऐसा विचारकर मनिराज चन्द्रगुप्त ने फिर आहार का त्याग किया और जाकर अपने गुरुदेव से निवेदन कर दिया । तब गुरु ने कहा कि "तुम्हें पुण्यबन्ध हुआ, क्योंकि तुमने व्रत की छाया ( शोभा ) को अभंग ( निरतिचार ) रखा ( रक्षा की ) है ।" ___निमल चित्त चन्द्रगुप्त मुनि भिक्षा के निमित्त चतुर्थ दिन अन्य दिशा में पहुँचे। वहां उन्होंने गोपुर तथा प्राकारों से युक्त चौराहों से रमणीक तथा मणिनिर्मित जिनगृहों से युक्त एक नगर देखा । वे क्षपणक ( चन्द्रगुप्त )-श्रमण वहाँ जा पहुँचे। वहाँ (श्रावक-गण अपने-अपने ) दरवाजों पर उनको प्रतीक्षा में खड़े हुए थे। उनमें से एक ( श्रावक ) ने चन्द्रगुप्त मुनि को पडगाहा ।
पत्ता-ऐरावत हाथी की सूंड के समान श्रेष्ठ हाथोंवाले वे मुनिवर विधिपूर्वक ( नवधा भक्ति सहित ) चर्या ( भिक्षा) करके शीघ्र ही अपने आश्रम में लौट आये और अपने गुरु से बोले- "हे प्रभु, यहाँ एक नगर है,
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