Book Title: Bhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक
[१] श्रुतकेवलि-परम्परा । कौतुकपुर के एक ब्राह्मण कुल में उत्पन्न
बालक-भद्रबाहु की बाल-लीलाओं का वर्णन घत्ता-[ भगवान् महावीर स्वामी के परिनिर्वाण के पश्चात् ६२ वर्षों में श्री गौतम स्वामी, श्री सुधर्मा स्वामी और श्री जम्बूस्वामी ये तीन केवली हुए।] तत्पश्चात् [१०० वर्षों में] अंगधारी पांच श्रुतकेवली मुनीश्वर हुए, जो कि अष्टांगनिमित्तज्ञान में कुशल थे। इन पांचों मुनियों में से पाछिले ( अन्तिम ) बहुगुणी भद्रबाहु मुनि हुए। मैं [उनके चरणों में प्रणाम कर] उनकी विमल कथा प्रकट करता है।
इसी आर्य क्षेत्र में जहां कि पुण्यवान् जीव रहते हैं, उसमें देवों के मन का हरण करने वाले ( स्वर्ग से भी सुन्दर ) कौतुकपुर नामका नगर है, जिसमें प्रवद्धित प्रताप वाला पद्मरथ नामका राजा राज्य करता था। उसकी अतिरूपवती पद्मश्री नामकी भार्या थी। उस राजा का एक पुरोहित था, जो विशेष प्रसिद्ध ज्ञानी था और जिसका नाम शशिसौम्य ( सोमशर्मा ) था, जिसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो चुकी थों। उसको रूपवती नारियों में प्रधान सोमश्री नामकी पत्नी थी। उसके उदर से अपाप ( पुण्यशाली ) एक नन्दन ( पुत्र) का जन्म हुआ। जन्मदिन में लग्न शोधकर विप्र ने कहा कि यह भव्यजनों से निरुक्त ( स्तुत्य ) मेरा पुत्र गुणश्रेणि ( समूह ) से युक्त, पवित्र दया है जिसमें, ऐसे जिनशासन का उद्धारक स्वभावी एवं सलोल (प्रसन्नचित्त) होगा तथा [अपने धर्म से] चलायमान नहीं होनेवाला होगा, ऐसा अपने मन में समझो। फिर बड़े गौरव से 'जिताश' (आशा-इच्छा, या दिशाओं को जोतने वाला ) ऐसा कहकर सुरकरि ( ऐरावत हाथी ) की सूंड के समान दीर्घ बाहुवाले उस डिभ (पुत्र) का नाम श्रीभद्रबाहु रखा। द्वितीया का चन्द्र जैसे गगन में बढ़ता है, उसीके समान वह अतन्द्र (प्रमादरहित ) भी बढ़ने लगा, और ऋषिवरों के समान प्रमाण (मान्य) हुआ।
पत्ता-एक दिन वह सुमति नगर के बालकों सहित गोपुर के बाहर जाकर गोल पत्थर (बंटे ) पर गोल पत्थर ( बंटा ) रखने लगा। जैसी उसकी इच्छा थी, वैसी ही वह क्रीड़ा करने लगा ॥१॥
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