Book Title: Bada Jain Granth Sangraha
Author(s): Jain Sahitya Mandir Sagar
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 12
________________ २४ बड़ा जैन - ग्रन्थ-संग्रह | तन जीभ नाक आंख कान ये ही पंचइन्द्री, जाके जे ते होय ताहि सो सर्दहीजिये । संख द्वै पिपीलि तीन भौंर चार नर पंच, इन्हें आदि नाना भेद समुझि गहीजिये ॥ ११ ॥ पंच इन्द्री जीव जिते ताके भेद दाय कहे, एकनिके मन एक मनविना पाइये । और जगवासी जंतु तिनके न मन कहूँ, एकेंद्री बेइन्द्रो तेंद्री चौइन्द्री बताइये || एकेंद्रीके भेद दोय सूक्षम बादर होय, पर्यापत अपर्यापत सर्वे जीव गाइये । ताके बहु विस्तार कहे हैं जु ग्रन्थनि में, थोरे में समुझि ज्ञान हिरदै अनाइये ॥ १२ ॥ चउदह मारगणा चउदह गुणस्थान, होहिं ये अशुद्ध नय कहे जिनराजने । येही भाव जोलों तोलों संसारी कहावै जीव, इनको उलंघनकरि मिर्ले शिव साजने ॥ शुद्धनै विलोकियेता शुद्ध है सकलजीव, द्रव्यकी उपेक्षा सो अनन्त छवि छाजने । सिद्ध के समान थे विराजमान सबै हंस, चेतना सुभाव धर करें निज काजनै ॥ १३ ॥ अष्टकर्महीन अष्ट गुणयुत चरमसु, देह तातें कछु ऊने सुख 'को निवास है । लोकको जु अत्र तहां स्थित है अनन्त सिद्ध, उत्पादव्यय संयुक्त सदा जाको बास है | अनन्तकाल पर्यंत थिति है अडोल जाकी, लोकालोकप्रतिभासी ज्ञानको प्रकाश है । निश्चै सुखराज करै बहुरि न जन्म घरै, ऐसे सिद्ध राशन को आतम विलास है ॥ १४ ॥ प्रकृति ओ थितिबन्ध अनुभाग बंधपरदेशबन्ध एई चार बन्ध भेद कहिये । इन्हीं चहुं बन्ध अवन्ध के चिदानन्द, अग्निशिखा सम ऊर्वको सुभावी लहिये ! और सब जगजीव तजें निज देह जब, परभोको गौन करे तबै सर्ल गहिये । ऐसें ही अनादिथिति नई कछू भई नाहिं, कही ग्रन्थमांहि जिन तैसी सरदहिये ॥ १ ॥ ( इति जीवस्य नवाधिकाराः )

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