Book Title: Bada Jain Granth Sangraha
Author(s): Jain Sahitya Mandir Sagar
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 21
________________ बड़ा जेन ग्रन्थ-संग्रह | बैरी मेरे बहुत से, जो होवें इस जगत में । उनसे क्षमा करालू, तब प्राण तन से निकले ॥ ३ ॥ परिग्रह का जाल मुकपर, फैला बहुत है स्वामी । उससे ममत्व टूटे, जब प्राण तन से निकले ॥ ४ ॥ दुष्कर्म दुख दिखावें, या रोग मुझ को घेरें । प्रभु का ध्यान छूटे, जब प्राण तन से निकले ॥ ५ ॥ इच्छा क्षुधा तृषा की, होवे जो उस घड़ी में । उनको भी त्याग कर दूँ, जब प्राण तन से निकले ॥ ६ ॥ ऐ नाथ अर्ज़ करती विनती पै ध्यान दीजे | होवे सफल मनोरथ, जब प्राण तन से निकले । होवे समाधि पूरी तब प्राण तन से निकले ॥ ८ ॥ वेश्या कुटलाई | गर लगे बान तो मत करो प्रीति वेश्या विष बुकी कटारी है यही सकल रोगनकी खान हत्यारी ॥ टेक ॥ औषधि अनेक हैं सर्प डसेकी भाई । पर इसके काटेकी नहि कोई दवाई ॥ जीवित हू रहि जाई । पर इसके नैन के बानसे होय सफाई है रोम रोम विष भरी करो न यारी । है यही सकल रोगनकी खान हत्यारी ॥ १॥ यह तन मन धन हर लेय मधुर बोली में । बहुतों का करै शिकार उमर भोली में ॥ कर दिये हजारों लोटपोट होली. में, । लाखौका दिलकर लिया कैद चोली में ॥ गई इसी कर्म में लाखों की ज़मीदारी । है यही सकल रोगन की खान हत्यारी ॥२॥ हो गये हजारो के बल वीर्य द्वारा । लाखों का इसने वंश नाश कर डारा गठिया प्रमेह आतिश ने देश बिगारा। भारत गारत. हो गया इसीका मारा ॥ कर दिये हजारों इसने चार मरु ज्वारी । है यही सकल दुर्गुणकी खान हत्यारी ॥ ३ ॥ इसही ठगतीने मद्य मांस सिखाया। सब धर्म कर्मको इसने धूर मिलाया ॥ और दया

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