Book Title: Bada Jain Granth Sangraha
Author(s): Jain Sahitya Mandir Sagar
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 54
________________ जैन-प्रन्य-संग्रह। इष्ट छत्तीसी। अर्थात् पंच परमेष्ठी के १४३ मूल गुण । सोरठा। प्रणमू श्रीधरहंत, दयाकथित जिनधर्मको। गुरु निरग्रंथ महन्त, अवर न मानू सर्वया ॥१॥ . चिन गुण की पहिचान, जाने वस्तु समानता। तात परम वखान, परमेष्ठी के गुण कह ॥२॥ रागद्वषयुत देव-मानै हिंसाधर्म पुनि। . सग्रंथगुरु की सेव ,लो मिथ्याती जग भूमै ॥३॥ अरहंत के ४६ मूल गुण । दोहा । ...... चौतीस अतिशय सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ । अनन्त चतुष्टयं गुणसहित, छीयालीसों पाठ ॥en अर्थ-३४ अतिशय, ८ प्रातिहार्य, ४ अनन्त चतुष्टय ये अरहंत के ४६ मूल गुण होते हैं । अव इनका भिन्न भिनं वर्णन करता है जन्म के १० अतिशय । अतिशय रूप सुगंध तन, नाहिं . पसेव निहार । प्रियहित पचन अतुल्य अल, रुधर श्वत आकार

Loading...

Page Navigation
1 ... 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116