Book Title: Bada Jain Granth Sangraha
Author(s): Jain Sahitya Mandir Sagar
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 63
________________ जैन-प्रसंन्यग्रह। INM !.. . " • पावहीं अष्टौ सिद्धि नवनिधि, मनप्रतीति शु आनहीं। . भ्रमभाव छूट सकल.मन के, जिन स्वरूप सो जानहीं ॥.. पुनि हरहि पातक टरहि विधन, सु होय मंगल नित नये। । भणि रूपचंद्र त्रिलोकपति जिन देव चउसंहिं 'जये ।। २५॥ . :: छह ढाला.। . . . . . . . .. . .. .:. . श्रीयुत पंडित दौलरामजी कृत. . . . . . . . .. .. : सारठा । . . . . . . . तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता। . .. . .: - शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिके..: . . प्रथमहाल-चौपाई छन्द १५ मात्रा। जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त । सुख चाहें दुखतें भयवन्त ॥ ; तातें दुखहारी सुखकार । कहैं सीख गुरु करुणाधार ॥ १.॥ ताहि सुनो, भविमनथिर. आन । जो चाहो अपनो . कल्यान । मोह महा मंद पियो अनादि । भूल आपको भरमत बादिः॥२.॥ तासंभ्रमणकी है बहु कथा। पै कछु कहूं . कही मुनि यथा ॥ कालं अनन्त निगोद. मझार। बीतो, एकेन्द्री तन धार.॥३॥ एक,श्वासमें अठदशवार । जन्मो मरो भरो दुख भार ॥ .. निकस भूमि जल पावक भयो.। पवन प्रत्येक वनस्पति थयो ॥४ दुर्लभ लहिये चिन्तामणी। त्यो पर्याय लही त्रस तणी॥ लट पिपील अलि आदि शरीर । धरधर मरो सही बहुपीर . . . . . . . . . . . . . . . . . . . , . .

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