Book Title: Bada Jain Granth Sangraha
Author(s): Jain Sahitya Mandir Sagar
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 87
________________ जैन - अन्ध-संग्रह | १७३ परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध यादिपोडशकारणेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं ॥ अगर कपूर गंध शुभ खेय । श्रीजिनवरभागें महकेय । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ दरश० ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्ध यादिपोडशकारणेभ्येा अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामि० ॥ ७ ॥ श्रीफल आदि बहुत फलसार । पूजौं जिन वांछितदातार । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमंगुरुं हो ॥ दरश० ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध यादिषोडशकारणेभ्यो मोक्षफल - प्राप्तये फलं निर्वपामी० ॥ 11 जल फल आठों दरव चढ़ाय । 'द्यानत' वरत करों मनलाय परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ दरश ● ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्ध यादिपोडशकारणेभ्येाऽनर्घ्य पदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति ॥ अथ जयमाला । दोहा | पोशकारण गुण करे, हरै चतुरगतिवास । पापपुण्य सब नाशकै, ज्ञानभान परकास ॥२॥ चौपाई १६ मात्रा । दरशविशुद्ध धरे जो कोई । ताको आवागमन न होई विनय महाधारे जो प्रानी । शिववनिताकी सखी बखानी ॥२॥ शील सदा दृढ़ जो नर पालें । सा औरन की आपद टालें ॥ ज्ञानाभ्यास करै मनमाहीं । ताकै मोहमहातम नाहीं ॥ ३ ॥ जो संवेगभाव विस्तारै । सुरगमुकतिपद आप निहारै ॥

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