Book Title: Bada Jain Granth Sangraha
Author(s): Jain Sahitya Mandir Sagar
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 114
________________ २६६ जैन - ग्रन्थ-संग्रह | कांतिक श्याम अमावस शिवतिय पावापुरतै वरना । गनफनिवृदं जजै तित बहु विधि, मैं पूजूं भवहरना ॥ मोहिराखौ ॥५॥ ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णामावास्यायां मोक्षमङ्गलमंडिताय श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ अथ जयमाला | छंदहरिगीता ( २८ मात्रा ) गनधर असनिधर चक्रधर, हरघर गदाधर वरवदा । 'अरु चापधर विद्यासुघर, तिरंसूलधर सेवहि सदा ॥ दुखहरन आनंदभरन तारन, तरन चरन रसाल हैं। सुकुमाल गुन मणिमाल उन्नत, भालकी जयमाल हैं ॥१॥ छेद धत्तानंद (३१ मात्रा ) जय त्रिशलानंदन हरिकतवंदन, जगदानंदनचंद वरं । भवताप निकंदन तनमनवंदन, रहितसंपंदन नयन घरं ॥२॥ छंद तोटक जय केवलभानुकलासदनं । भविकेोकविकाशन कंजवनं ॥ जगजीत महारिपु मोहहरं । रजज्ञानद्गांवरचूरकरं ॥ १ ॥ गर्भादिक मंगल मंडित हो । दुख दारिदको नित खंडित हो । जगमाहितुमी सत पंडित हो। तुमही भवभावविहंडित हो ॥ १ ॥ हरिवंससरोजनको रवि हो । वलवंत महंत तुमी कवि हो ॥ लहि केवल धर्मप्रकाश किया। भवलौं सोई मारग राजतियौ ॥३॥ पुनि मापतने गुणमाहिं सही। सुर मग्न रहें जितने सब हो । तिनकी वनिता गुण गावत हैं। लय ताननिसों मनभावत हैं ||४|| " पुनि नाचत रंग अनेक भरी । तुव भक्तिविषै पगं एम धरी । झननं झनन झनन झननें । सुर लेत तहाँ तननं तननं ॥५॥ 1

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