Book Title: Bada Jain Granth Sangraha
Author(s): Jain Sahitya Mandir Sagar
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 72
________________ १२६ जैन-ग्रन्थ संग्रह | संवाद्यतामिव गतांश्चतुरः समुद्रान् सस्थापयामि कलशांन् जिनवेदिकान्ते ॥७॥ ( पुष्प अक्षातादि क्षेपण करके वेदी के कोनों में चार कलशों की स्थापना करना चाहिये ) आभिः पुण्याभिरद्भिः परिमलबहुलेना मुना चन्दनेन श्रीट्टस्पेयैरमीभिः शुचिरुदकचयै रुद्र मैरेभिरुद्ध हृद्यरेभिनिवेद्य भवनमिदपर्याद्भः प्रदीपैधूपैः प्रायाभिरेभिः पृथुभिरपि फलैरीभरीशं यजामि || ( यह पढ़कर अघ चढ़ना चाहिये ).. दूरावनम्रसुरनाथ किरोटकोटोलंलग्नरक्ष किरणच्छविधूसरांघ्रिम् | i प्रस्वेदताप मलमुकमपि प्रकृष्टैर्भकत्या जलैजिनपति बहुधाऽभिषिचे ॥॥ ( शुद्ध जल की धार प्रतिमा पर छोड़ना चाहिये ) भक्त्या ललाटतटदेश निवेशितेाच्चै - ईस्तैच्युताः सुरवरः सुरमर्त्यनाद्यैः । तत्कालपी लितमहेक्षरसस्य धारा सद्यः पुनातु जिर्नावम्वगतैव युष्मान् ।।१०। ( इक्षुरसकी धारा० ) उत्कृष्ट वर्णन व हेमनसाभिराम 'देहप्रभावलय संगमलुप्त दीप्तिम् । धारा घृतस्य शुभगन्त्रगुणानुमेयां वन्देऽर्हतां सुरभिसस्नपनेापयुक्काम् ॥११॥ ( घृत रस की धारा ) -

Loading...

Page Navigation
1 ... 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116