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जैन-ग्रन्थ संग्रह |
संवाद्यतामिव गतांश्चतुरः समुद्रान् सस्थापयामि कलशांन् जिनवेदिकान्ते ॥७॥
( पुष्प अक्षातादि क्षेपण करके वेदी के कोनों में चार कलशों की स्थापना करना चाहिये )
आभिः पुण्याभिरद्भिः परिमलबहुलेना मुना चन्दनेन श्रीट्टस्पेयैरमीभिः शुचिरुदकचयै रुद्र मैरेभिरुद्ध हृद्यरेभिनिवेद्य भवनमिदपर्याद्भः प्रदीपैधूपैः प्रायाभिरेभिः पृथुभिरपि फलैरीभरीशं यजामि || ( यह पढ़कर अघ चढ़ना चाहिये ).. दूरावनम्रसुरनाथ किरोटकोटोलंलग्नरक्ष किरणच्छविधूसरांघ्रिम् | i प्रस्वेदताप मलमुकमपि प्रकृष्टैर्भकत्या जलैजिनपति बहुधाऽभिषिचे ॥॥
( शुद्ध जल की धार प्रतिमा पर छोड़ना चाहिये ) भक्त्या ललाटतटदेश निवेशितेाच्चै -
ईस्तैच्युताः सुरवरः सुरमर्त्यनाद्यैः । तत्कालपी लितमहेक्षरसस्य धारा
सद्यः पुनातु जिर्नावम्वगतैव युष्मान् ।।१०।
( इक्षुरसकी धारा० )
उत्कृष्ट वर्णन व हेमनसाभिराम
'देहप्रभावलय संगमलुप्त दीप्तिम् ।
धारा घृतस्य शुभगन्त्रगुणानुमेयां
वन्देऽर्हतां सुरभिसस्नपनेापयुक्काम् ॥११॥ ( घृत रस की धारा )
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