Book Title: Bada Jain Granth Sangraha
Author(s): Jain Sahitya Mandir Sagar
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 73
________________ जैन-ग्रन्छ-संग्रह। संपूर्णशारदशशाकमरीविजाल स्यन्दरिवान्मयशसामिव सुप्रवाहैः क्षागजिनाः शुचितररभिपिच्यमाणाः संपादयन्तु मम चित्तसमीहितानि ॥१२॥ (दुग्ध रस की धारा०) दुग्धाधिवीचिपयसंचितफेनराशि पारसुत्वकान्तिमवधारयतामात्र । दना गता जिनपते प्रतिमा सुधारा संपद्यतां सपदि चाञ्छितसिद्धये यः ॥१३॥ (दही की धारा०) संसापितस्य धृपदुग्धदधीक्षुहै: सर्वाभिरोपधिभिरहतमुज्ज्वलाभिः। .. उद्धर्तितस्य विदधाम्पभिपेकमे लाकालेशकुखमरसोत्कटावारिपूरैः ॥१४॥ (सर्वोपधिरस की धारा०) इष्टमनोरथशतेरिव भव्यपुंसां पूर्णीः सुवर्णकलशनिखिलैर्वसानः ।। संसार सागरविलडुनहेतुसेतुमा प्लावये त्रिभुवनैकपति जिनेन्द्रम् ॥१५॥ (कलशों से अभिषेक) द्रव्यैरनरूपघनसार चतुः समाद्यरामोदधासितससस्तदिगन्तरालैः। मिश्रीकृतेन पयसा जिनपुङ्गवानां त्रैलोक्पपाचनमहं स्नपनं करोमि ॥१६॥ ' (सुगधित जल को धारा०)

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