Book Title: Bada Jain Granth Sangraha
Author(s): Jain Sahitya Mandir Sagar
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 55
________________ जैन-प्रन्य-संग्रह। लच्छण सासरुमाठ तन, समचतुम्कसंठान । घनवृषभनाराच जुत, ये जनमत दश नाम: ६॥ अर्य-१ अत्यन्त सुन्दर शरीर, अति सुगन्यमय शरी८३ पसेवरहित शरीर, ४ मलमूत्ररहित शरीर, ५दितमितप्रियवचन घोलना, ६ अतुल्यपळ, दुग्धवत् श्वेत क्षघिर, ८शरीर में एक हजार आठ लक्षण, समचतुरस्त्रसंस्थान, १० घनवृषभनाराचसंहनन । ये दश अतिशत परहंत भयवान के जन्म से ही उत्पन्न होते हैं ॥६॥ केवल ज्ञान के १० अतिशय । योजन शत इकमें सुमिक्ष, गगनगमन मुख चार । . नहिं अदया उपसर्ग नहि, नाही कवलाहार . सब विधा ईसुरपनों, नाहिं बढ़े नखकेश। बनिमिषदग छायारहित, दश केवलके पेश ॥ अर्थ-१ एकसौ योजन में सुमिक्षता, अर्थात् जिस स्थान में केवली हो उनसे चारों तरफ लौ सौ कोशमें. सुकाळ होता है, २ माफाश में गमनं, ३ चार मुखों का दीवाना, ४ हिंसाका घमाव, ५ उपसर्गरहित, ६ पल (प्रास) घर्जित आहार, समस्त विद्यायोंका स्वामीपना, ८ नखफेशोका नहीं बढ़वा 8 नेशकी पलकें नहीं झपकना, १० छाया रहित । ये १० अतिशय केवलज्ञान उत्पन्न होने से प्रगट होते हैं ॥८॥ देव-कृत १४ अतिशय । देव रचित हैं चार दश, , अर्द्धमागधी भाष । यापसमांही.. मित्रता निर्मल. दिश. आकाश. ASA

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