Book Title: Bada Jain Granth Sangraha
Author(s): Jain Sahitya Mandir Sagar
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 29
________________ बड़ा जैन-ग्रंथ-संग्रह। (झर्व ) मेरे हेतु कमण्डलु लायो । इक पीछी नई अंगावो । मेरा मत जी भरमावो। मम सूते कर्म जगावो ॥ _ (झड़ी) है जगमें असाता कर्म, बड़ा बेशर्म, मोह के भ्रमसे धर्म न सूझै। इसके वश अपना हित कल्याण न बूझै। जहां मृग तृष्णा की धूर, वहां पानी दूर.भटकना भूर कहां जल झरना॥ निर्नेम नेम बिन हमें जगत् क्या करना कार्तिक मास ( झड़ी) सखि कातिक काल अनन्त, श्रीधरहन्त,की सन्त महन्तने आज्ञा पाली । धर योग यत्न भव भोगकी तृष्णा टाली। सजे चौदह । गुण अस्थान, स्वपर पहचान, तजे रु मकान महल दिवाली । लगी उन्हें मिष्ट जिन धर्म अमावस काली ॥ (झर्व)-उन केवल ज्ञान उपाया। जगका अन्धेर मिटाया। जिसमें सब विश्व समाया । तन धन सब अथिर बताया। (झड़)-है अथिर जगत् सम्बन्ध, अरो मतिमन्द, जगत्का अन्ध है धुन्ध पसारा । मेरे प्रीतमने सत जानके जगत् विसारा । मैं उनके चरणकी चेरी, तू आज्ञा देरी, सुनले मा मेरी है एक दिन मरना । निम नेम बिन हमें जगत क्या करना ___अगहन मास ( झड़ी) सखि अगहन ऐसी घड़ी,उदै में पड़ी, मैं रहगई खड़ी दरस नहिं पाये। मैंने सुकृत के दिन विस्था योही गवाये । नहि मिले हमारे पिया, न जप तप किया, न संयम लिया . अटक रही जगमें। पडी काल अनादिसे पापकी बेड़ी पग में । (झर्वY)-मत भरियो माँग हमारी । मेरे शीलको लागेगारी। मत डारो अञ्जन प्यारी । मैं योगन तुम संसारी॥ (झडी)-हुये कन्त हमारे जती, मैं उनकी सती, पलट गई रती तो धर्म नहि खण्ड । मैं अपने पिताके बंशको कैसे भई।

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