Book Title: Bada Jain Granth Sangraha
Author(s): Jain Sahitya Mandir Sagar
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 47
________________ ३२. जैन-ग्रन्थ संग्रहः। त्रिभुवन पति हो ताहि ते छत्र विराजे तीन । अमरा नाग नरेश पद रहे चरण आधीग ॥१५॥ सब निरनत भद आपने तुत्र भामंडल बीच । भ्रल मेटे समता गहे नाहि लहे गति लोच ॥१६॥ दोई और दोरत अबर चौसठ घमर सफेद । निरखत ही भव को हरे भव अनेक सो खेद ॥ १७ ॥ तरु अशोक तुबहरत है भवि जीवन का शोश। आढालता कुल सेटि के क्षरै निराइल जोक ॥१८॥ अंतर चाहिर परिग्रह त्यागी सफल समाज । सिंहासन पर रहत हैं अंतरीक्ष मिनराज ॥१४॥ जीत भई रिपु माह ते यश सूक्त है ताज। देव दुंदुभि के सदा वाजे बजे अज्ञात ॥ २०॥ विन अक्षर इच्छा रहित रुचिर दिव्य ध्वनि होय । सुर नर पशु समझे सबै संशय रहेन लोय ॥ २९ ॥ वरसत मुरतर के कुसुम गुजत गरि बहुं ओर। फैलत झुयश लुवाखदा हरपत भाव सद ठौर ॥ २२ ॥ समुंदवार अरु रोग अहि अर्गल पुलमाम । वित विषम सही टरे सुमरत ही जिन नाम ॥२३॥ श्रीपाल चंडाल पुनि अंजन भील अपार । हाथो हरि बहि सब तरे आज हमारी पार ॥ २४ ॥ वुध जन यह विनती करै हाथ जोड़ मार वाय । 'जव लों शिव नहिं रहे तुव भक्तिक्ष्य अधिकार ४२५॥

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