Book Title: Bada Jain Granth Sangraha
Author(s): Jain Sahitya Mandir Sagar
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 10
________________ रनकरण्ड-श्रावकाचार-हिन्दी पद्यानुवाद। १३ - - - - - - . दुःश्रुति । जिनके कारण से जागृत हो, राग द्वेप मद काम विकार । आरंभ साहस और परिग्रह, त्यों. छावें मिथ्यात्वविचार। मन मैला जिनसे हो जावे, प्यारो सुनना ऐसे प्रन्य। दुःश्रुति नाम अनर्थ कहाता, कहते हैं ज्ञानी. निग्रंथ ।। ६६ ।। अनथेदण्डवतके अतिचार । . . स्मराधीन हो हंसी दिल्लगी-करना भंडवचन कहना। बकवक करना आंख लड़ाना, कायकुचेष्टा में बहना ।। सजधज के सामान बढ़ाना, पिना विचार त्यों प्रियवरतनमनवचन लगाना कृतिमें हैं अतिचार सभी वृतहर॥६७।। भोगापभोगपरिमाण । इन्द्रिय-विपयों को प्रतिदिन ही, कम कर राग घटा लेना। है व्रत भौगोपभोगपरिमित, इसकी ओर ध्यान देना. ॥ पंचेन्द्रिय के जिन विषयों को भोग छोड़ दें ये हैं मोगः। जिन्हें भोगकर फिर भी भोगें मित्रो घे ही हैं उपभोग ॥६॥ प्रस जीवों की हिंसा नहिं हो-होने पावे नहीं प्रमाद । इसके लिये सर्वथा त्यागो, मांस मद्य मधु छोड़ विपाद ॥ अदरख निम्बपुष्प बहुवीजक, मक्खन मूल आदि सारी। तजो सचित चीजें जिनमें हो, थोड़ा फल हिंसा भारी॥६॥ जो भनिष्ट हैं सत्पुरुषों के सेवन योग्य नहीं जो है। उन विषयों को सोच समझकर, तज देना जो वत सो है। भोग और उपभोग त्याग के, बतलाये यम नियम उपाय । अमुक समयतकत्याग 'नियम' है,जीवन भरका यम कहलाय७० नियम करने की विधि । भोजन वाहन शयन स्नान रुचि, इत्र पान कुकुम-लेपन । गीत वाद्य संगीत कामरति, माला भूपण और वसन ॥

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