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मिथ्या और दिशा भ्रामक है और उससे सत्य को प्राप्ति नहीं हो सकती। तत्व चिन्तन अन्यों द्वारा प्रकाश की विचार और विवेचना है जब कि योग स्वयं को अांखें देता है और सत्य के दर्शन की सामर्थ्य और पात्रता उत्पन्न करता है। चित्त की शन्य और पूर्ण जागृत अवस्था ही समाधि है । समाधि सत्य की चक्षु है। सच्चिदानन्द स्वरूप की अनुभूति ही वास्तविक जीवन है। उसके पूर्व मानव मृतक के समान है।
"प्राचार्य सोमदेव और उनका यशस्तिलक चम्पू लेखक- मुनि श्री विद्यानन्दजी महाराज । प्रस्तुत लेख में मुनि श्री ने प्राचार्य सोमदेव के व्यक्तित्व और उनकी बहुचर्चित कृति यशस्तिलक चम्मू का अध्ययन करते हुए यह परिणाम निकाला है कि प्राचार्य सोमदेव लोक व्यवहार के प्रबल पक्षपाती थे और इसी व्यवहार मार्ग से निश्चय मार्ग की ओर अग्रसर होना उन्हें अभीष्ट था। वास्तव में जैसा कि लेखक महोदय ने कहा है इस दृष्टि से प्राचार्य के कृतित्व का मूल्यांकन निःसंदेह अपेक्षित है।
"जैन साहित्य में शान्त रस'' लेखक-डा. नरेन्द्र भानावत एम.ए. पी.एच.डी.। "जैन धर्म और दर्शन का मूल स्वर प्रात्मा पर पड़े हुए विभिन्न कर्म पुद्गलों का प्रावरण हटा कर उसे अपने विश्द्ध सहज रूप में देखना है। यही मनोभूमि उसे साहित्य सर्जन की ओर प्रेरित करती है । यही कारण है कि जैन साहित्य मे जीवन के विभिन्न पक्षो का निरूपण होते हुए भी उसकी अन्तिम परिणति शांत रसात्मक है ....... " इस पृष्ठ भूमि में लेखक ने साहित्य में रस शब्द के विभिन्न प्रयोगो का दिग्दर्शन कराते हुए जैन दृष्टिकोण से शांत रस की प्रमुखता सिद्ध करते हुए एवं रस सम्बन्धी नवीन दृष्टिकोण मे विचार करते हुए शांत रस का रस राजत्व प्रमाणित किया है तथा जैन साहित्य में शांतरस की प्रमुखता देखकर जो लोग इसे वर्तमान जीवन के लिये अनुपयोगी मानते हैं और उसे सामाजिक हित में बाधक मानते हैं; क्योकि उनके अनुसार शांतरस की प्रमुखता जीवन को निराशा की ओर ले जाती है और अभिव्यक्ति को अकर्मण्य बना देती है, उनकी इस मान्यता का युक्तिपुरस्सरपूर्वक खण्डन किया है।
"साहित्य, व्युत्पत्ति और परिभाषा" लेखक-श्री रवीन्द्र कुमार जैन, एम.ए. पी.एच.डी. । प्रस्तुत लेख में लेखक ने साहित्य शब्द की व्युत्पत्ति और परिभाषा का भारतीय, पाश्चात्य एवं उर्दू भाषा के विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन करते हुए स्थापना की है कि साहित्य अन्ततोगत्वा सम्पूर्ण मानव जगत को उसकी विविधताओं में देखते हुए भी उसे एक मैत्रीपूर्ण सहअस्तित्व के सूत्र में आबद्ध करना चाहता है। लेखक के इस विचार मे कि साहित्य मूलतः जीवन निष्ठा के प्रकाशनार्थ होना चाहिए अमहमत होना कठिन है।
"फागु काव्य की नबोपलब्ध कृतियाँ" लेखक-डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल एम.ए. पी.एच.डी. । रास, बेलि प्रादि की भाँति ही फागु भी प्राचीन साहित्य का एक काव्य रूप रहा है । प्रस्तुत लेख में लेखक ने अपने शोध संदर्भ में उपलब्ध छह नवीन फागु काव्यों का विवरण प्रस्तुत कर प्राप्त फागु काव्यों की संख्या में वृद्धि की है।
"जैन दर्शन में अर्थाधिगम चिन्तन" लेखक-श्री दरबारीलाल जो कोठिया। जैनदर्शन में अर्थ के अधिगम का साधन प्रमाण और नय को स्वीकार किया गया है जबकि जेनेतर दर्शनों