Book Title: Babu Chottelal Jain Smruti Granth
Author(s): A N Upadhye, Others
Publisher: Babu Chottelal Jain Abhinandan Samiti

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Page 171
________________ ११६ बाबू छोटेलाल जैन स्मृति मंथ . के १.२२४०७ अर्थ किये । वि० सं० १६४६ कवि का प्रश्नोत्तर माला काव्य और दिबाकर मुनि श्रावण शुक्ला त्रयोदशी को जब सम्राट ने काश्मीर का भृगारवैराग्यतरंगिणी काव्य (१५ बी पाती) का प्रथम प्रयास किया तो उसने प्रथम शिविर रुचिकर रचनाएं हैं। भट्टारक सफलभूषण विरचित राजा श्री रामदास की वाटिका में स्थापित किया। उपदेशरत्नमाला में तप, दान, पूजा, स्वाध्याय प्रादि यहां सन्ध्या के समय विद्वत्सभा एकत्र हुई जिसमें का सुन्दर चित्रण किया गया है। उनका समय सम्राट अकबर, शाहजादा सलीम, अनेक सामन्त, वि. सं.की १५वीं शतो है । जयसेन सरिकत कवि, वैयाकरण एवं तार्किक विद्वान् सम्मिलित धर्मरलाकर भी सूक्तिकाम्य है । कुलभद्र का सारथे । कविवर समयसुन्दर ने अपना यह ग्रन्थ पढ़- समुच्चय, धर्मनीति प्रधान सूक्तिकाव्य है । कवि ने कर सुनाया जिसे सुनकर सभी सभासद माश्चर्य नीति और ज्ञान की बातें मर्मस्पर्शी शैली में व्यक्त चकित हुए। कवि ने उक्त प्रों में से असम्भव या की हैं:योजनाविरुद्ध पड़ने वाले प्रों को निकालकर इस नास्तिकामसमो व्याधिर्नास्ति मोह समो रिपुः । प्रन्थ का नाम 'प्रष्टलक्षी' रखा । मेघविजयगणि नास्ति क्रोधसमो बन्हिर्नास्ति ज्ञानसमं सुखम् ॥२७॥ का 'सप्तसन्धान, काव्य भी इस युग को अमूल्य विषयोरगदष्टस्य कषाय विषमोहितः । रचना है । भट्टारकों ने सन्धानात्मक-काव्य प्रवृत्ति संयमो हि महामन्त्रस्त्राता सर्वत्रदेहिनाम् ॥३०॥ का अनुसरण नहीं किया है। धर्मामृतं सदा पेयं दुःखातविनाशनम् । -सूक्ति-साहित्य-प्रवृत्ति--उपदेश, नीति और यस्मिन् पीते परं सौख्यं जीवानां जायते सदा ॥६३॥ प्रेम सम्बन्धी काव्यों को सूक्ति या सुभाषित काव्य कहा जाता है। लोकवृत्त अथवा नैतिक शिक्षा का ७. स्तोत्र और पूजा-भक्ति साहित्यनिरूपण काव्य की अनुरंजनकारिणी भाषा में भट्टारक-युग में इस श्रेणी के साहित्य का सम्पन्न होने से यह काव्यविद्या भी सहृदयों को सर्वाधिक सृजन हुआ है। इस प्रकार के साहित्य में अपनी मोर प्राकृष्ट करती है । शर्करामिश्रित परमात्मा, परमेष्ठी या अन्य देवी देवतामों का प्रौषधि के समान काव्य चमत्कार उत्पन्न करना स्तवन, पूजन या भक्ति पाख्यान वरिणत रहते हैं। सूक्ति काव्य का लक्ष्य होता है । यों तो मुक्ति काव्य जैन दर्शन में भक्ति का रूप दास्य, सत्य और माधुर्य के अनेक भेद-प्रभेद किये जा सकते हैं, पर प्रधान भाव से भिन्न है। क्योंकि कोई भी साधक अपनी रूप से धामिक मुक्तिकाव्य, नैतिक सूक्तिकाव्य चिकनी चुपड़ी प्रशंसात्मक बातों द्वारा वीतरागी और काम या प्रेम परक सूक्तिकाव्य ये तीन उसके प्रभू को प्रसन्न कर उनकी प्रसन्नता से अपने किसी उपभेद हैं । इन काव्यों में लोकवृत्तानुकूल उपदेश एवं लोकिक या अलौकिक कार्य को सिद्ध करने का ऐहिक जीवन को मुखी बनाने वाले सिद्धान्त काय्य उद्देश्य नहीं रखता है और न परम वीतरागी देव चमत्कारों के साथ निबद्ध रहते हैं। सूक्तियों में के साथ यह घटित ही हो सकता है। यतः वीतइस की समस्त विशेषताएं और चमत्कृति के समस्त रागी मात्मानों की उपासना या भक्ति का उपकरण समाहित पाये जाते हैं । शब्द-चमत्कार पालम्बन पाकर मानव का पंचल चित क्षरणभर के और अर्थचमत्कार का जो समवाय मूक्तियों में लिये स्थिर हो जाता है और धाराव्य के गुणों का उपलब्ध रहता है वह प्रबन्ध में नहीं । हमारे इस स्मरण कर भक्त अपने भीतर भी उन्हीं गुणों को अभीष्टयुग में अर्हदास का भव्यजनकण्ठाभरण विकसित करने की प्रेरणा प्राप्त करता है। इस (१३ वी शसी), सोमप्रभ का सूक्तिमुक्तावलि काव्य युग में महाकवि प्राशाधर का जिनयज्ञकल्प ( १३वीं (१३ वीं शती), पद्यानन्द का वैराग्यशतक, विमल शती), ब्रह्मजिनक्षस की जम्मूदीप पूजन, अनन्तव्रत

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