Book Title: Babu Chottelal Jain Smruti Granth
Author(s): A N Upadhye, Others
Publisher: Babu Chottelal Jain Abhinandan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 207
________________ अशनं मे वसनं मे जाया मे बंधुवर्गो मे । इति मे मे कुर्वाणं, कालवृको इन्ति पुरुषाजम् || अर्थ -- यह मेरा भोजन है, यह मेरा कपड़ा है, यह मेरी स्त्री है, ये मेरी कुटुम्बी गए हैं; इस तरह मे मे करने वाले बकरे को काल । (मौत) रूपी भेड़िया मार डालता है। अनुगन्तु सतां वर्त्म, कृत्स्नं यदि शक्यते । स्वल्पमप्यनुगन्तव्यं मार्गस्थो नावसीदति ।। यदि सज्जन पुरुषों के कार्यकलापों का पूर्ण रूप से अनुगमन नहीं कर सकते हो तो थोड़ा-थोड़ा ही करो क्यों कि रास्ते पर लगा हुवा। मनुष्य एक न एक दिन अवश्य ही ठिकाने पहुंच जाता है, इधर-उधर । भटकता नहीं ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238