Book Title: Babu Chottelal Jain Smruti Granth
Author(s): A N Upadhye, Others
Publisher: Babu Chottelal Jain Abhinandan Samiti

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Page 236
________________ दो ऐतिहासिक रचनायें के प्रसाद से शिष्य सुखकर ने यह रचना ( सदगुरू श्री पूज्य श्री चिन्तामणिजी जन्मोत्पत्ति स्वाध्याय) को जो नर नारी स्थिर चित्त से स्तुति करेंगे, सुनेगे वे लीलाम्रों को प्राप्त करेंगे। } प ८ & ११ प्राचार्य चिन्तामरिण के गुरू का नाम धनराज तो चिन्तामणि जन्मोत्पत्ति स्वाध्याय में दिया है। पर इससे पहले की परम्परा गुजराती तपागच्छ की पट्टावली से ज्ञात होती है। जिसका सारांश जैन । जिसका सारांश जैन गुर्जर कवियों भाग : ३ के परिशिष्ट नं० २ में प्रकाशित हुआ है । उसके अनुसार लोकाशाह के मत में सर्वप्रथम भागाजी दीक्षित हुए। तदनन्तर मीदाजी, नूना जी भीमा जी, जगमाल जी, 'सरवा जी, रूपजी, जीव जो बडावरनिह "लघु वरसिंह, जसवन्त जी, रूपसिंह जी, और दामोदर जी क्रमशः गुजराती लोकागच्छ के प्राचार्य बने । दामोदर के शिव्य पनराज जी हुए उनकी शाखा जयतारण से अलग हो गई। १७ वर्ष के बाद संवत् १७१३ में सूरत में बोरा बीरजी ने पुनः गच्छ की एकता का प्रयत्न किया । पर इनकी शिष्य संतति तो अलग बनती ही रही। धनराज के बाद 'चिन्तामणि' गच्छ नायक बने । श्रीर उनके पट्ट पर सेमकरण वैठे । जिनका विवरण सेमकरण जन्मोत्पत्ति संधारा विधि नामक दूसरी रचना में प्राप्त है जिसका ऐतिहासिक सारांश नीचे दिया जा रहा है १ (२) श्राउवा शहर में संघ शिरोग रिण चीमासाह निवास करते थे । उनके पुत्र रामसाह की स्त्री का नाम राना दे था जो रूपवान, पुण्यवान और शीलवती थी। संवत् १७०१ मिती मात्र मुदि १३ के दिन शुभ वेला नक्षत्र में शुभ स्वप्न सूचित बालक का जन्म हुआ। जिसका नाम श्री समकरण रखा गया क्रमशः वृद्धि पाता हुआ कुमार तरूण अवस्था को प्राप्त हुधा एक बार भाउवा नगर में गुरुश्री चिन्तामणि जी पधारे। जिनके उपदेश से वैराग्यवासित हो कुमार ने माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मांगी । फिर बड़े महोत्सव के 1 1 १८१ साथ संवत् १७२५ माघ सुदि १३ बृहस्पतिवार के दिन गुरु श्री से संयम ग्रहण किया। तदनन्तर संवत् १७२६ का प्रथम चातुर्मास श्रीपूज्य जी के साथ रेयानगर में हुआ। दूसरा चौमासा सादड़ी, तीसरा सिरीयारी, पीया नोहलाई पांचवा रतनपुरी, डा ब्रहानपुर, सातवां मलकापुर, प्राठवां घृतभाजनपुर, नयां ताल, दसवां पीपाड़ में हुआ। फिर उज्जैन में दो चातुर्मास दो चातुर्मास हुए अभैराज व दोदराज ने बड़ी सेवा की । तेरहवां चातुर्मास बड़ौदा, चौदहवां उज्जैन, पन्द्रहवां दिल्ली, सोलहवां नोरंगपुर, सतरहवां बेरी नगर, श्रठारहवां रूप नगर व उन्नीसवां चातुर्मास मिला हुआ। बीसवां चातुर्मास परवतसर, इक्कीसवां सोजितपुर किया । समस्त श्रावकों ने सेवा कर अपने मनोरथ पूर्ण किये। सोजत चतुर्मास कर श्री चिन्तामणि गच्छति के साथ उम्र बिहार करते हुए परबतसर पाए । दीपचन्द शाह ने प्रत्यस भक्तिपूर्वक गच्छनायक से प्रार्थना की कि सेमकरण जी का पदोत्सव परबतसर में ही होना चाहिये । फिर स्वीकृति मिलने पर बड़े समारोहपूर्वक पदोत्सव की तैयारियां होने लगी । रूपनगर व कृष्णगढ़ का संघ एकत्र हुआ। जीवनबार हुए बहुत-सा अर्थ व्यय किया। कृष्णगढ़ के लगायत गोत्रीय जसवंत थायक व रूपनगर-परबतसर के कोटेचा जिनदास के वंशजों में प्रधान दीपचंद थे बहुत से उत्सव विजिनदास के सभी परिवार वालों ने अर्थ व्यय किया। मुनिवरों को पहिरावरणी दी । कुकुम के स्वस्तिक व मोतियों से चौक । पूरे गए नाना प्रकार की वाजित्र ध्वनि के बीच संवत १७४२ माघ सुदि १३ के दिन श्री पूज्य चिन्तामणि जी ने श्री समकरण जो को भावार्य पद प्रदान किया। । श्री समकरण जी का २२ व चतुर्मास कृष्णगढ़, तेईसवां सिलाएं, फिर दिल्ली, कुलंगपुरी में तीन चौमासे करके मुकुन्दगढ़, श्राऊया पधारे । श्रावक लोगों ने नाना प्रकार से सेवा की। फिर रत्नपुरी तदनन्तर कल्याणपुर पधारे, कोठारी कचराशाह ने

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