Book Title: Babu Chottelal Jain Smruti Granth
Author(s): A N Upadhye, Others
Publisher: Babu Chottelal Jain Abhinandan Samiti

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Page 232
________________ हिन्दी का प्रादिकाल और जैन-साहित्य १७७ कर किया गया है। इससे काव्य में एक तान की ऊब प्रसाद द्विवेदी ने दोहा परम्परा के निर्देश में विक्रनहीं माने पाई तथा उसकी गेयात्मकता स्पष्ट हो मोवंशी, सिद्धों के दोहों, गाय कुमार चरिउ, करगई है। इस दृष्टि से यदि इस रचना को रासक कंडू चरिउ, थूल भह फाग, प्राकृत पेंगलम्, प्रादि कहा जाय तो मनुचित न होगा।"५ मयण परा- का उल्लेख किया है। वस्तुतः मात्रिक छन्दों का जय एक रूपक काव्य है । जैसा कि मैंने ऊपर का प्रयोग विक्रमोर्वशी के निर्माण काल से भी स्पष्ट किया है २ रास, रासक और चरित काव्यों बहत पूर्व से होता पा रहा था और धम्मपद में भी का मौलिक अन्तर उनकी गेयात्मकता के आधार पर चौपाई के उदाहरण मिल जाते है। स्वयंभू के ही स्पष्ट किया जा सकता है । ये रासक प्रेक्ष्य भी समय तक मात्रियः छन्दों के न केवल विविध रूप हैं जैसा कि हेमचन्द्र ने स्पष्ट किया है । बीसलदेव विकसित हो चुके थे अपितु दोहा, चौपाई, रोला रासो गेय है। पृथ्वीराज रासो के पृथक पृथक प्रादि का प्रबन्ध काव्यो में पूरा उपयोग भी हुग्रा घटनाश्रित खंड भी अपने मल रूप में गेय होंगे। है । पउमचरिउ में इन सबके उदाहरण बड़ी मात्रा जहां तक मदन पराजय का रास या रासक में मिल जाते है । इस निष्कर्ष का प्राधार, कि से सम्बन्ध जोड़ने का प्रश्न है यह वैष्णव (नन्ददास पूर्व में दोहा, चौपाई और पश्चिम में पद्धडिया. की रास पंचाध्यायी या भागवत ) बौद्ध, और न घत्ता अधिक लोकप्रिय छन्द धे, एक विहंगम दृष्टिपरम्पग में एक साधक के विघ्नों में वरिणत घटना क्षेप मात्र है। मात्र है जो मलतः एक ही संस्कृति की त्रिधारा हिन्दी साहित्य के प्रादि काल में सिद्धों. नाथमें समान रूप से उपलब्ध है और मदन पराजय पंथियों आदि की मुक्तक, ज्ञान परक रचनात्रों के की यह घटना जैन और वैष्णव रास कायों में अतिरिक्त जैन-मुत्तक रचनाओं का भी महत्व पूर्ण समान रूप में वर्णन का विषय बनी है। धार्मिक योगदान रहा है । जैन-साहित्य के इस योगदान में महत्ता और सरसता इसके मुख्य कारण है। परमात्मा प्रकाश, योगसार, वैराग्यसार, प्रानन्दाजैन कथा गन्थ नन्द स्तोत्र, पाहुड दोहा, सावय धम्म दोहा, कुमार हिन्दी साहित्य के प्रादि काल में जैन कथा पाल प्रतिबोध, प्रबन्ध चिन्तामणि, प्रबन्ध ग्रन्थों का भी एक विशिष्ट स्थान है, यद्यपि इनकी कोश-प्रादि का महत्व पूर्ण स्थान है । इनमें उन उपेक्षा अधिक हुई है । लीलावती और कुवलय माला मुक्तक रचनामों का पूर्व रूप उपलब्ध हो जाता है प्रभति प्राकृत ग्रन्थों का परवती साहित्य पर जो ग्रादि काल की अन्तिम शताब्दी और उसके प्रचुर प्रभाव पड़ा है। इसी परम्परा में भविसयत्त बाद प्रकाश में आई हैं और जिन्होंने हिन्दी साहित्य कहा, जीव मनः करण संलाप कथा, धम्म परिक्खा, की श्री वृद्धि में महत्वपूर्ण योग दिया है। कथा कोष, रत्नकरण्ड शास्त्र, स्थूलिभद्र कथा, अणुव्रत रत्न प्रदीप, सुलसाख्यान प्रादि कृतियां भी इस सक्षिप्त विहंगम दृष्टिपात से यह निष्कर्ष पाती हैं जिनका हिन्दी साहित्य के आदि काल के सहज ही निकाला जा सकता है कि प्रादि कालीन प्रध्ययन में महत्वपूर्ण स्थान है। जैन-साहित्य की अपेक्षा कर हिन्दी साहित्य के जैन मुक्तक काव्य प्रादि काल के स्वरूप और उसके सर्वागीण महत्त्व प्रादि काल की अधिकांश जैन रचनायें अपभ्रंश का प्राकलन कर पाना संभव ही नहीं है। या प्रत्यधिक अपभ्रंश प्रभावित हैं। प्राचार्य हजारी१. दृष्टव्य-मयण पराजय की भूमिका पृ० ६७ ॥ २, वहीं-पृष्ठ ७० ॥ ३. दृष्टव्य-हिन्दी साहित्य का प्रादिकाल १०१ से १०३ तक

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