Book Title: Babu Chottelal Jain Smruti Granth
Author(s): A N Upadhye, Others
Publisher: Babu Chottelal Jain Abhinandan Samiti

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Page 197
________________ बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्थ १४२ चार वर्ण थे। इनका कथन है कि चार वर्ण में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं । २ हेमचन्द्र के समय से कुछ पूर्व भारत की यात्रा करने वाले अरब here meatvit (मृत्यु १०४८ ई०) ने भारत के इन्हीं चार वर्गों का उल्लेख किया है। वस्तुतः ये चार वर्ण प्राचीनकाल से चले भा रहे हैं। इस aforeter का प्रेरक तत्व निश्चय ही व्यक्ति का व्यवसाय और कर्म ही था, जिस पर समाजfrश्लेषकों की दृष्टि थी । प्राचीन काल से चार वर्गों में विभाजित भारतीय जाति मध्ययुग में भी तदनुरूप ही थी । यद्यपि वर्ण-विभाजन में जन्मगत आधार का बीज "कुल" और "वंश' नाम से था गया था, ' तथापि वर्ण-व्यवस्था में व्यक्ति के व्यवसाय प्रौर कर्म का महत्व अपेक्षाकृत अधिक था । " ब्राह्मण हिन्दूसमाज में ब्राह्मणों की स्थिति सर्वप्रमुख थी । सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक प्रादि सभी पक्षों में उनकी प्रधानता मान्य थी । प्राचीन धर्मशास्त्रों ने इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से मानी है । कदाचित् इसी कारण इनकी मर्यादापूर्ण सर्वोच्चता हिन्दू समाज में थी। प्राचार्य हेमचन्द्र का कथन है कि ब्राह्मण ब्रह्मा की संतान हैं। यहां "ब्रह्मा" से उनका तात्पर्य हिन्दुनों के पौराणिक 'ब्रह्मा' से नहीं है, बल्कि प्राध्यात्मिक गुण-संपत्ति युक्त और सद्चरित्रता से विभूषित व्यक्ति "ब्रह्मा" के नाम से संबोधित किया गया है। भ्रतः "ब्राह्मण” शब्द उनके लिए प्रयुक्त होता था । 5 हेमचन्द्र का दृढ़ मत है कि जो ब्राह्मण सचरित्रता, मननशोलता प्रादि गुणों से रहित है तथा अपने मौलिक कर्तव्यों को त्याग कर "प्रायुधजीवी" (प्रर्थात् अस्त्र-शस्त्र से जीविकोपार्जन करता है) हो जाता है, वह मात्र नाम का ही ब्राह्मण होता है । # ब्राह्मणों के अन्य पर्यायवाची नामों में उन्होंने " षट्कर्मा नाम भी दिया है । १० शुक्र के अनुसार जो ज्ञान, कर्म, देवता यादि की उपासना देवता के प्राराधन में तत्पर, शांत, दांत और दयालु था, वही ब्राह्मण था ।" "षट्कर्मों में ये कर्त्तव्य थे । १- वेद पढ़ना, २ वेद पढ़ाना, ३-यज्ञ करना ४-यज्ञ कराना, ५- दान लेना, प्रोर ६-दान १. चत्वार एव वर्णाश्चातुर्वण्यंम् सिद्ध है मशब्दानुशासन, ७।२।१६४ । २. " चातुवर्ण्य द्विजक्षत्रवैश्यशूद्र नृणा भिदः " प्रभिधान विन्तामणि, ३।८०७ । ३. "अलबरूनी का भारत प्रवास धौर भ्रमण " -- काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ६६, अंक १, सं० २०१८, पृ० ६८-७८ ४, तहकीक- मालिल - हिंद, पृ० ५० ( अनुवादक, संखाउ अलबरूनीज इंडिया ) ५. " पूर्वमध्ययुगीन भारतीय वर्णव्यवस्था ", बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी जर्नल वर्ष ८, अंक १, पृ० २२३-३४, ६२ ६. महा०, शांति०, ७२. १७-१८ ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तमाः । पादोरुपक्षः स्थलता मुखतश्च समुद्गताः । विष्णुपुराण, १.६.६ । ७. "ब्राह्मणोऽपत्यं ब्राह्मणः, सिद्धहेमशब्दानुशासन, ७४|५६ । ८. प्रभिधान चिन्तामणि, ६, १४१६, लिंगानुशासन, पृ० १४२, पंक्ति २० । E, ब्राह्मणानाम्नि - " यत्रायुधजीविनः काण्डस्पष्टा नाम ब्राह्मणाः भवन्ति । प्रायुधजीवी ब्राह्मण एव ब्राह्मणक इत्यन्य | सिद्धहेमशब्दानुशासन, ७।१।१८४ १०. “ अवदानं कर्म शुद्ध ब्राह्मणस्तु त्रयीमुखः । वर ज्येष्ठः सूत्रकण्ठः षटकर्मा 'मुखसम्भवः भूदेवो वाडवो विप्रो द्वयाम्यां जाति-जन्मजाः अभियान चिन्तामणि, ३, १८११-११ । ११. ज्ञान कर्मोपासनाभिदेवताराधनेरतः । शांतोदांतोदयानुश्च ब्राह्मणश्चगुणों कृतः ॥ शुक्र० ४ ॥

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