Book Title: Babu Chottelal Jain Smruti Granth
Author(s): A N Upadhye, Others
Publisher: Babu Chottelal Jain Abhinandan Samiti

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Page 136
________________ महाकषि रईधू युगीन अप्रवालों की साहित्य सेवा के अच्छे जानकार । ' खेल्हा का विवाह कुरुक्षेत्र साथ ही सुदूरवर्ती दक्षिण में भी भट्टारकीय गद्दियों के जैन धर्मानुरागी सेठियावंश के श्री सहजा साहू के माध्यम से उन्होंने म त प्रचार एवं स्थायी के पुत्र श्री तेजा साहू को जालपा नामक पत्नी से कार्य किये हैं । साहित्य के क्षेत्र में अग्रवालों ने उत्पन्न खीमी नामक पुत्री से हुआ था। २ सन्तान विद्वानों एवं साबुनों को उचित श्रद्धा, सम्मान हीन होने के कारण खेल्हा ने अपने भाई के पुत्र एवं साधन देकर उन्हें समाज के शीर्ष पर पासीन हेमा को गोद ले लिया तथा गृहस्थी का भार उसे किया । मध्य कालीन जैन-मूर्तियां, मन्दिर, सौंपकर मुनि यश.कीर्ति के पास अणुव्रत धारण साहित्य एवं शास्त्र भण्डार निस्सन्देह ही इसके कर लिये थे और तभी से फिर वे ब्रह्मचारी कहलाने जीते-जागते उदाहरण हैं। लगे थे। ३ खेल्हा ब्रह्मचारी मे ग्वालियर-दुर्ग में राधू-साहित्य में साहित्य लिखवाने वाले चन्द्रप्रभु भगवान की एक सुन्दर विशाल मूर्ति का प्रथया शास्त्रों को प्रतिलिपि करने अथवा कराने निर्माण कराया था ।४ ग्वालियर के सुप्रसिद्ध बालों का महत्व भी साहित्य लेखक से कम नहीं संघपति कमलसिंह इनके घनिष्ठ मित्र थे और उन्ही माना गया । साहित्य-सेवा के क्षेत्र में इस प्रकार के सहयोग एवं सहायता से खेल्हा ने उक्त मूर्ति की उक्ति निश्चय ही अग्रवाल जाति को साहित्य एवं एक विशाल शिखरबन्द मन्दिर की प्रतिष्ठा सेवा सम्बन्धी एक स्फूति, साहित्य प्रचार मौर भी कराई थी। मूति-निरिण के प्रासपास ही प्रसार के प्रति लगन एवं प्रास्था का द्योतन वे एकादश-प्रतिमा के धारी बन गये।। करती है। विस्तार-भय एवं पृष्ठ-सीमा को विवशता के इसी प्रकार कवि ने रणमल साहू, प्राडू साहू, कारण यह निबन्ध यहां समाप्त करता हूं, किन्तु लोणा साह, तोसउ साहू, कुन्थुदास, हेमराज प्रभृत्ति कालीन अग्रवालों की विविध सेवानों की सीमा अग्रवालों के भी उल्लेख किये हैं । जिन्होने उस हर रेखा यही नहीं है इससे कहीं अधिक दूर है । वस्तुतः प्रकार की सहायता, सम्मान एवं प्राश्रयदान देकर समाज, साहित्य एवं राष्ट्र का ऐसा कोई भी प्रगतिउससे एक विशाल साहित्य का निर्माण कराया था। शील एवं रचनात्मक कार्य नहीं है जिससे अग्रवालों इनके अतिरिक्त महाकवि रद्धू ने अपनी का सक्रिय सम्बन्ध न हो । यदि मध्यकालीन समग्र विस्तृत प्रशस्तियों में बहुत से संघपतियों, मूर्ति- साहित्य को न भी लें और अकेले रइधू-साहित्य के निर्मातानों, मूतिप्रतिष्ठापकों, गिरनार मादि तीयों प्रशस्ति खण्डों में उल्लिखित अग्रवालों के कार्यों का की यात्रा करने वालों, राजनयिकों, भद्रारकों प्रादि लेखा-जोखा किया जाय तो भी उससे इस जाति के के भी विस्तृत उल्लेख किये हैं जिनकी चर्चा इस गौरवपूर्ण कार्यों का एक सुन्दर प्रामाणिक इतिहास निबन्ध में नहीं की गई है इन उल्लेखों से यह स्पष्ट अन्य तैयार हो सकता है। राधू-साहित्य निश्चयतः विदित होता है कि मध्यकाल में जैनधर्म, साहित्य, ही अग्रवाल-जाति के स्वर्णमय प्रतीत के गौरव मूति एवं मन्दिरनिर्माणकला आदि के क्षेत्र में जो का एक अद्वितीय उदाहरण है। यदि यह साहित्य प्रचार-प्रसार हुआ उसमें प्रसवालों का ही प्रमुख प्रकाशित हो जाय तो उसका यश चतुर्दिक विकीर्ण हाथ रहा है। समग्र उत्तर भारत में तो उन्होंने होकर समाज एवं राष्ट्र को सुरभित करेगा, इसमें तन-मन एवं धन से अनवरत कार्य किया ही, कोई सन्देह नहीं । १. सम्मइ०१।३ । २. २. सम्मइ०१०।३४ | १८-२७. ३. सम्मइ०१०।३४ । २८-३४. ४. सम्मइ.११४ । ११-१२ ५. सम्मइ.१।४।१६-१८, ६. सम्मइ०१।४।६.

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