Book Title: Babu Chottelal Jain Smruti Granth
Author(s): A N Upadhye, Others
Publisher: Babu Chottelal Jain Abhinandan Samiti

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Page 159
________________ १०४ बाबू छोटेलाल जैन स्मृति पन्थ परन्तु जैन समाज के कुछ नेता ब्रह्मचारी जी के पीछे पड़े हुए थे। वे ब्रह्मचारी की पर जोर डालते थे कि या तो धाप विधवा विवाह के विचार छोड़ दें अथवा खुल्लम खुल्ला विधवा विवाह के समर्थक बन जांय । इस बात को लेकर ब्रह्मचारी जी को इतना दबाया गया कि इच्छा न रहने पर भी उन्हें विधवा विवाह का खुल्लम खुल्ला समर्थन करना पड़ा। राचारी जी के विरोधियों को उन्हें जैन । ब्रह्मचारी समाज में निन्दित करने का अवसर मिल गया । ब्रह्मचारी जी ने सनातन जैन समाज नाम से एक अलग समाज खड़ा कर लिया। पर ब्रह्मचारी जो भीतर से नट्टर दि० जैन थे। उन्हें इसका पूरा मोह था। सिर्फ विधवा विवाह के समर्थक थे और उस विषय में उनके विचार पुराने प्रान्दोलकों- स्व. सूरजभान जी वकील, दयाचन्दजी गोयलीय प्रादि के समान थे अर्थात् विधवा विवाह के विषय में वे कहा करते थे कि भले ही वह जैनधर्म के विरुद्ध हो पर समय की मांग है। उसके बिना जैनों की संख्या घट रही है भादि । ऐसे ही तर्कों से विधवा विवाह का समर्थन करते थे उन्हें मालूम था कि में विधवा विवाह का समर्थक है। इसलिये प्रति सप्ताह उनका एक पत्र मुझे मिलने लगा कि आप इस प्रान्दोलन का समर्थन कीजिये, मैं असहाय हूँ, इस आन्दोलन को भाप ही जोरदार बना सकते हैं । पर मेरी भी कुछ परेशानियाँ थीं। जिन संस्थानों से मेरा सम्बन्ध या विधवा विवाह के प्रान्दोलन से उनको क्षति पहुँचती या मुझे उनसे सम्बन्ध छोड़ना पड़ता । में इन दोनों बातों के लिये तैयार न था । उस समय में जन जगत का सम्पादक था हो । इसलिये मैंने यह घोषित किया कि जैन जगत में विघया विवाह को लेकर दोनों पक्षों के लेख निकलेंगे। समर्थन में भी पौर विरोध में भी। जन जगत से स्थिति पालक पंडित तो भड़कते ही थे इसलिये उनके लेख तो प्राए ही नहीं । इसलिये विधवा विवाह के विरोध में कोई लेख जन जगत में छपने नहीं श्राया और समर्थन में भी लेख लिखने की हिम्मत किसी में न थी तथा यह सारा नाटक मुझे ही करना पड़ा। कल्पित नामों से मैंने विधवा विवाह के विशेष और समर्थन में लेख लिखने शुरू किये | कभी बयाणी देवी आदि के नाम से विषया विवाह का विरोध करता कभी सव्यसाची के नाम से विधवा विवाह का समर्थन करता । कई वर्षो तक मे सव्य साधी के नाम से विधवा विवाह के समर्थन में लेख लिखता रहा। विरोधियों को उत्तर देता रहा। उन लेखों को ट्रेक्ट के रूप में दिल्ली के जौहरीलाल जी सर्राफ ने छपवाया। एक ट्रेक्ट तो करीब २५० पेजों का था। । विधवा विवाह के पुराने समर्थकों से मेरे समर्थन में एक अन्तर था। पहले के लोग विधवा विवाह को जैनधर्म के विरुद्ध मानकर समय की जरूरत के नाम से प्रापद्धर्म के रूप में चलाना चाहते थे जब कि मेरा कहना था कि विधवा विवाह जनधर्म का अंग है। विधवा विवाह के रिवाज के बिना जैनधर्म का ब्रह्मचर्याशुवत प्रधूरा है । ब्रह्मचर्याशुव्रत का मतलब है कि मनुष्य की उद्दाम काम वासना एक पुरुष या एक नारी में सीमित हो जाय। यह कार्य विधवा विवाह से भी होता है । विधवा को भी कामवासना को सीमित करने की जरूरत है को कि विवाह से ही संभव है इसलिये विधवा विवाह ब्रह्मचर्याम्पुव्रत का पूरक है । इसी प्रकार कोई पुरुष यदि किसी विधवा के साथ विवाह करके अपनी काम वासना वो सीमित कर लेता है तो उसका यह विवाह भी ब्रह्मचर्यव्रत का सहायक बन जाता है। इस प्रकार दोनों के लिये विधवा विवाह ब्रह्मचर्याव्रत का मंत्र है और ब्रह्मचर्यारव्रत तो जैन धर्म का मूल है इसलिये विधवा विवाह भी मूलत में सहायक बन्ना इस प्रकार धार्मिक दृष्टिकोण से मैंने विधवा विवाह का जोरदार समर्थन किया हालां कि यह सब सव्यसाची के नाम से किया ब्रह्मचारी जी को जब भी कोई चलेञ्ज देता या ये कह देते थे कि सव्यसाची से "

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