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जैन संस्कृति में नारी के विविध रूप
नारी माता के रूप में हमेशा पूजी गई है। संक्षेप में यदि कहें तो जैन संस्कृति में नारी के जिम नारी ने तीर्थकुर, चक्रवर्ती, बलभद्र प्रादि वे सभी रूप स्वीकृत हैं जिनके बिना मानव समाज महापुरुषों को जन्म दिया हो वह क्या कभी हेम हो का कोई भी चित्र पूरा नहीं हो सकता । कन्या के सकती है ? भारतीय संस्कृति की जो यह सार्वभौम रूप में यदि नारी दुलारी गई है तो गृहस्वामिनी के मान्यता है कि नारियों की जहां पूजा होती है वहाँ रूप में उसे मान कम नहीं दिया गया। जन नारी देवता निवास करते हैं । विन्तु यह मान्यता कहीं ने समस्त कलाप्रों में पारंगत हो अपनी विद्वत्ता मान्यता ही न रह जाय यह पाशका है । क्योंकि और सामर्थ्य का जहाँ परिचय दिया है, वहाँ धर्मवर्तमान समय में नारी जिन रूपों में प्रस्तुत हो परायण पौर कर्तव्यनिष्ठ होकर समाज और धर्म रही है या की पा रही है वह रूप पूजा के योग्य की सेवा भी कम नहीं की । पात्म साधना, स्याग तो कभी नहीं हो सकता।
एवं तपस्या की तो वह अधिष्ठात्रो रही है, जिसने
लिंग छेद कर निर्वाण को भी प्राप्त किया है। इस प्रकार जैन संस्कृति के पालोक में नारी इस प्रकार यदि प्रत्य संस्कृतियों में नारी को हेय के समस्त पहलुओं को देखने से यह ज्ञात हाता है और भोग्य की वस्तु समझ उसका अपमान कर कि नारीका उससे घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। यद्यपि घोर अपराध किया है तो नारी के उज्जवल और प्रस्तुत निबन्ध के साथ यह दावा नहीं किया जा
समुन्नत रूप को सराहना, उसे पुरुषों के समकक्ष सकता कि नारी के समस्त पहल और सम्पूर्ण
मानना, यह जन संस्कृति की नारी से प इसमें निहित है, किन्तु फिर भी यह कहने क्षमायाचना है। में संकोच नहीं होता कि नारी के विषय में कुछ भी सोचने और समझने के लिए इसकी उपयोगिता नहीं हटायी जा सकती।
विष का विष ही तो अमृत है।
कोई बात बहुत दिनों से चली आ रही है, केवल इसीसे वह मच्छी नहीं हो जाती । सम्मान के साथ चले माने पर भी नहीं। बीच बीच में उसे जांच करके देख लेना चाहिये कि उसकी उपयोगिता कहां बक भदुरण है।
-पाबूजी की डायरी से