________________
चमन में इनसे इबरत है
नेमीचन्द्र शास्त्री, एम.ए., पी.एच.डी., प्राध्यापक एच. डी. जैन कॉलेज, धारा (मगध विश्वविद्यालय)
दिन
पाते हैं और चले जाते है, पर वे अपनी मधुर स्मृतियाँ मानस पटल पर सदा के लिए अंकित कर जाते हैं । जो घटना मर्म को छू जाती है, वह सर्वदा के लिए टंकोत्कीर्ण हो जाती है। श्रादरणीय श्री बाबू छोटेलालजी का प्रथम दर्शन आज से २२ वर्ष पूर्व हुआ था, पर उनके प्रथम साक्षात्कार का प्रभाव प्राज भी तदवस्थ है । बाबूजी का व्यक्तित्व वस्त्र, वायु, वाक्, विद्या और विभूति रूप पञ्चवकार से नहीं ग्रांका जा सकता है, बल्कि महनिय की प्रत्येक कार्यवाही उनके व्यक्तित्व की महत्ता सूचक है। जीवन के प्रतिपल को प्रत्येक घटना दीपावली की विद्यवल्लरी के समान अपने लोक की स्निग्धकिरणों को विकीर करती है। समाज संस्कृति, साहित्य और धर्मोत्थान की भावना बावुजी में पूर्णतया व्याप्त थी। उनका व्यक्तित्व हिमालय की हिमधवल गगनस्पर्शी चोटियों के समान उम्रन और श्रद्धास्पद था। हिमालय की करुणा जिस प्रकार अगणित निर्झरों और सरिताओं के रूप में विगलित होती है, उसी प्रकार बाहुजी की करुणा भी असहाय धौर निराधयों को आजीविका दिलाने में बाबूजी के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने दीपशिखा की भांति अपने जीवन को तिल-तिल कर जलाया था, मात्र इसलिए कि साहित्य, संस्कृति, कला और समाज का उत्थान हो । उनमें दया, क्षमा, शालीनता, नम्रता और सहनशीलता मादि गुग्ण वर्तमान थे । जीवन भर रोगों से भने पर भी कार्य करने की क्षमता ज्यों की त्यों थी उनका अदम्य उत्साह कास और श्वांस के प्रबल वेग से भी धूमिल न हो सका था। वे जीवन का एक-एक क्षण सरस्वती
।
को माराधना में समर्पित करते थे। यद्यपि उन्होंने मुक्त हप्त से समाज और साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में लाखों रुपयों का दान दिया था, पर वे नामाङ्कन से सदा दूर रहे। विश्व में ऐसी विभूतियां कम ही परिलक्षित होती है, जिसमें सरस्वती और लक्ष्मी का एक साथ समवाय पाया जाय । यह सत्य है कि बाबूजी का तन, मन धौर धन दूसरों की सेवा के लिए सदा प्रस्तुत रहता था। वे साहित्यिक, विचारक और सार्वजनिक कार्यकर्ता होने के साथ २ बदान्यवरेण्य भी थे, जो व्यक्ति जिस साथ या इच्छा को लेकर उनके समक्ष उपस्थित होता, उसकी वह साध या इच्छा अवश्य पूर्ण हो जाती। उदार चेता बाबूजी का पर विद्वानों के लिए धनलस प्रतिथिशाला था, बिना सूचना के पहुँच जाने पर भी समुचित प्रतिथिसत्कार प्राप्त होता था। बाबूजी दुर्दान्त दमे से मल्लयुद्ध करते हुए अतिथि को समस्त सुख-सुविधाएँ पहुँचाने का प्रयास करते थे। भोजन, स्नान प्रभृति समस्त प्रावश्यकताओं को वे स्वयं ही भागे भाकर पूर्ण करते थे। उनका सौजन्यमय व्यवहार प्रत्येक अतिथि को मुग्ध कर देता था ।
.
हाँ, तो मैं अपने प्रथम साक्षात्कार के प्रभाव का अंकन करने का प्राभास कर रहा हूँ । संभवतः सन् १९४३ का जुलाई मास था। नया सत्र धारम्भ हो चुका था । विद्यार्थीगण महत्वाकांक्षाओं के कुहासे से घिरे हुए अपनी २ कक्षा में प्रविष्ट हो रहे थे में जैन बालाविधाम धारा में धर्म-संस्कृताव्यापक था । सहग़ा एक दिन ज्ञात हुआ कि कल इस संस्था के सभापति कलकत्ता निवासी दानवीर बाबूजी श्री छोटेलालजी धाने वाले हैं। सर्वत्र एक
1