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बाबु छोटेलाल जैन स्मृति मंध
नयी चहल पहल थी। सफाई स्वच्छता के निर्देशों के साथ छात्राओं को सावधानी सम्बन्धी अन्य प्रकार के निर्देश भी दिये जा चुके थे।
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प्रातः कालीन कक्षाएँ चल रही थीं, जिनमें प्रमेयकमल मार्त्तण्ड, प्रष्टसहस्त्री और गोम्मटसार के अध्यापन की व्यवस्था थी में स्मावतीचं परीक्षा में प्रविष्ट होने वाली छात्राओं को 'मार्तण्ड' पढ़ा रहा था कि एक गौरवर्ण, क्षीणकाय, मध्यमकद, उपतललाट, प्राजानबाहु और दूध जैसी धवल मेषभूषा से विभूषित व्यक्ति ने प्रवेश किया। शिष्टाचार प्रदर्शन के अनन्तर के बैठ गये और मुझे पाठ चालू रखने का भावेश दिया । प्रकरण कारक साकल्य का चल रहा था। कुछ पंक्तियों के अध्यापन के पश्चात् उन्होंने छात्राों से पूछा- 'नैयायिकादि के यहाँ प्रमा में किस वस्तु को साधकतम भाना गया है ? छात्राओं द्वारा इन्द्रिय और सन्निकर्ष के उत्तर दिये जाने पर उन्होंने उनकी श्रप्रमाणता सिद्ध करने के लिए प्रादेश दिया, पर जब छात्राएँ मौन दिखलायी पड़ी तो वावुजी ने बतलाया कि जानना या प्रमाप क्रिया के चेतन होने से साधकतम ज्ञान ही हो सकता है, प्रचेतन सन्निकर्षादि नहीं । सभिकर्णादि के रहने पर भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता और सन्निकर्षादि के प्रभाव में भी ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। भ्रतएव जानने रूप क्रिया का साक्षात् अव्यवहित कारण ज्ञान ही है, सन्निकर्षादि नहीं। प्रमिति या प्रमा घज्ञान निवृत्तिरूप होती है और इस अज्ञान निवृत्ति में प्रज्ञान का विरोधी ज्ञान ही कारण हो सकता है, जैसे अन्धकार की निवृत्ति में अन्धकार का विरोधी प्रकाश इन्द्रिय सन्निकर्षादि स्वयं प्रचेतन है, अतः बज्ञान रूप होने के कारण प्रमिति में साक्षात्कार नहीं हैं। यद्यपि कहीं-कहीं
दि ज्ञान की उत्पादक सामग्री में सम्मिलित है, पर सार्वत्रिक और सार्वकालीन अन्वयव्यतिरेक न मिलने से उनकी कारणता श्रव्याप्त हो जाती है। ज्ञान का सामान्य धर्म अपने स्वरूप को जानते
हुए पर पदार्थ को जानना है । वह अवस्था विशेष में पर को जाने या न जाने पर अपने स्वरूप को हर स्थिति में जानता है। स्वसंवेदी होना ज्ञान का स्वभाव है। इस प्रकार अपने जानने रूप क्रिया में साधकतमता - श्रव्यवहितकारणता ज्ञान को हो प्रतिपादित है ।
आयोजित सभा में शिक्षा के सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा- "वर्तमान में हमारे विद्यालयों का पठन क्रम सदोष है । अध्ययन और अध्यापन ग्रन्थानुसार किया जाता है, जिससे एक ही विषय कई बार पुनरावृत होता है, फलतः छात्रों का सर्वाङ्गीण विकास नहीं होता। प्राचार्यों ने ग्रन्थों का प्रणयन स्वाध्याय के हेतु किया है, पाठ्य क्रम को दृष्टि में रखकर ग्रन्थ नहीं लिखे गये हैं, अत: जैन विद्यालयों में विपयानुसार कतिपय शीर्षक निश्चित कर धर्म और न्याय की शिक्षा दी जानी चाहिए। प्रवेशिका प्रथम खण्ड से लेकर शास्त्रीय परीक्षा के अन्तिम खण्ड तक धर्म और न्याय के अनेक विषय बार-बार दोहराये जाते हैं, अतएव भा० द० जैन परीक्षालय को अपने पाठ्यक्रम को ठोस और व्यापक बनाना चाहिए। धार्मिक शिक्षा जीवन विकास की दृष्टि से अत्यावश्यक है, इसकी उपेक्षा करने से समाज को उन्नति नहीं हो सकती। मतः धन के बिना भी मनुष्य उठ सकता है. विद्या के बिना भी बड़ा बन सकता है, पर चरित्र बल के बिना मनुष्य सर्वचा हीन और पंगु है। प्रावरणहीन शान पाखण्ड है । नैतिक व्यक्ति ही अपने प्रति सच्चा एवं ईमानदार हो सकता है। अतएव कलिज भौर स्कूलों में भी धर्म शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए। मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि यहाँ की छात्राएँ प्रमेयकमल मासष्ट धौर प्रष्ट सहस्त्री जैसे उच्चकोटि के ग्रन्थों का अध्ययन करती हैं। आदरणीय बाईजी ( ० पं० चन्दाबाईजी) ने दासत्व की श्रृंखला में जकड़ी, घूँघट में छिपी अज्ञान और कुरीतियों से प्रताड़ित नारी को प्रात्मबोध ही नहीं कराया,