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बाबू छोटेलाल जी और उनका व्यक्तित्व
“भाई स्वतन्त्रजी ! लोग सुधार की बातें करते हैं, पर वे अपना स्वयं सुधार नहीं करते। जो । जितना कहता है उतना करने लगे तो वर्तमान में जो कुछ भी कलुषित गंदा वातावरण देख रहे हैं वह कभी का नष्ट हो जाये ।"
बाबूजी पुरातत्व के खोजी थे।
कार्यों में आप विशेष रुचि रखते थे । कार भी थे और साहित्य सेवी भी ।
शोध खोज के आप साहित्य
बाबूजी अपने साथ तीर्थ क्षेत्रों की फिल्म भी लाये थे। मूरत में नवापुरा स्थित फूलवाड़ी में जैन समाज की उपस्थिति में फिल्म प्रदर्शन किया था, साथ में बाप टिप्पणी भी करते जाते थे। टिप्पणी तो नाम था पर वास्तविकता तो यह थी टिप्पणी के रूप में आपका भाषण ऐतिहासिक तथ्यों पर
प्राधार रखता था ।
साधारण जनता नहीं जानती होगी कि बाबूजी लेखक थे, ऐसा में मानता हूँ पर बाबूजी पच्छे खाने ऐतिहासिक लेखक थे। सर्वप्रथम आपकी पुस्तक सन् १९२३ में " कलकता जैन मूर्ति यन्त्र संग्रह " प्रकाशित हुई थी । फिर सन् १९४५ में "जैन विबिलियो ग्राफी" प्रथम भाग प्रकाशित हुआ था। शोध खोज के कार्यों में पाप भारतीय विद्वानों को ही नहीं पितु पाश्चात्य देशों के विद्वानों को भी बराबर सहयोग देते रहते थे । प्राज अनेक विद्वान पी० एच० डी० हुए हैं उनमें अधिकांश विद्वानों ने जन साहित्य और इतिहास के सम्बन्ध में पूरा-पूरा सहयोग महकार बाबूजी से ही लिया है । बाबूजी स्वयं पी० एच० डो० न हों पर भापने अनेकों
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विद्वानों को पी० एच० डी० बना दिया, यह निस्संदेह कहा जा सकता है।
बाबूजी का जीवन महान था और बाबूजी महान थे। प्रापकी करनी धौर कथनी में समानता थी और उसमें लेखक को मानवता के दर्शन होते थे।
सन् १९६० के अक्टूबर मास में प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद क्षु० गणेशप्रसाद जी वर्णी की जन्म जयन्ती ईशरी मे ठाटबाट एवं शान शौकत के साथ मनाई गई। उस समय सूरत से में भी गया था, मुझे मालूम हुआ कि बाबू छोटेलालजी को टाईफाइड चल रहा है। में उसी समय बाबूजी से मिलने गया तो देखा कि बाबूजी को १०३ डिग्री बुवार है और लेटे हुए 'पंच संग्रह प्रन्थ' (भारतीय ज्ञान पीठ का प्रकाशन) पढ़ रहे हैं। मेने कहाबाबूजी ग्राप समय का ठीक-ठीक उपयोग कर रहे हैं। बाबूजी ने कहा- हां भाई स्वतन्त्र जी ! जब उपयोग दूसरी ओर लगा रहता है तब वर का दाह और वेदना मालूम ही नहीं होती।
बाबूजी के इस उत्तर से मुझे महान प्रसन्नता हुई। शाम को देखा तो आप स्टेज पर भाषण देते हुए वर्गीजी के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पण कर रहे थे, दुलार इस समय भी था। बाबूजी की यह घटना बताती है कि वे सहनशील और कष्टसहिष्णु थे । सहनशीलता प्रोर कष्ट सहिष्णुता में ही प्रापके जीवन का निर्माण हुआ था।
बाबूजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और आपका समूचा जीवन साहित्य एवं समाज की सेवा में ही व्यतीत हुधा ।