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बाबूजी की मधुर स्मृतियां
स्वामी सत्यभक्त करीब तेतीस वर्ष पुरानी बात है । मैं उन दिनों बाबूजी ने पाश्चर्य से कहा-पांच वर्ष ! यह
बम्बई में रहता था और सुबह तारदेव से तो बहुत लम्बा समय है । जीवन का क्या ठिकाना ! पौपाटी पूमने जाया करता था । वही सेठ ताराचन्द माणके ये विचार आपके साथ ही समाप्त र जो का बंगला था। सेठ ताराचन्द मी मेरे हर पान्दो- तो यह तो समाज की बड़ी हानि होगी। लन में सहयोगी रहे थे, और पीछे तो ये सत्य मैंने कहा---यह तो ठीक है । परन्तु पाज तक समाजी भी बन गये थे इसलिये उनसे काफी घनिष्ठता जो भी प्रान्दोलन मेने किये है वे तभी किये हैं जब थी और इसी नाते कुछ समय उनसे गपशप भी हो अन्त तक समर्थन करने की क्षमता अपने में जाया करती थी। एक दिन जब मैं उनके यहाँ गया देखली है। तो यहाँ बाब छोटेलालजी भी बैठे थे। एक दूसरे का
बाबूजी बोले-यह तो ठीक है। परन्तु कोई परोक्ष परिचय तो था ही, एकाध बार मिलना भी
बात समाज में विचार करने के लिये पेश करने में हो गया था, पर निकट परिचय का यह पहिला ही
क्या बुराई है ! प्राप घोषित कर दें कि ये विचार प्रबसर था। बाबू छोटेलालजी ने कुछ प्रश्न पूछ। मेरे निश्चित या अन्तिम विचार नहीं है किन्तु सत्य मैंने कहा-एक जैन पंडित की हैसियत से प्रचलित की खोज के लिये विचारणीय सामग्री के रूप में मान्यता के अनुसार उत्तर दूं या मेरा जो स्वतंत्र हैं। इन पर जो चर्चा होगी उसके आधार से चिन्तन है उसके अनुसार उत्तर दू । मापने कहा- निश्चित विचार बनेंगे' इस प्रकार की घोषणा करके प्रचलित मान्यता के अनुसार तो उत्तर बहुत मुन अाप अपने विचार समाज के सामने रखदें। चुका हूँ प्रापका स्वतंत्र चिन्तन ही मुनना चाहता हूँ। इसके बाद सर्वजता, उत्मपिंगी प्रवसर्पिणी, जैन
___ में कुछ देर सोचता रहा । स्वीकारता हूँ कि न धर्म की प्राचीनता, जैन पुराणों का रूप मादि पर
हूँ इसी चिन्ता में रहा कि प्रापने फिर जोर दिया।
अन्त में मैंने स्वीकारता देदी । कई घंटे चर्चा होती रही और मैंने अपने विचार नि संकोच भाव मे रखव । चर्चा के उपसंहार में वे
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स्वीकारता कोरा शिष्टाचार न थी। उसके बोले-अापके पास ऐसे असाधारण विचारों का पीछे बड़ी भारी जिम्मेदारी थी। दिन रात की घोर सजाना है पर अाफ्न उसे छिपा क्यो रक्खा है ? तपस्या, जैन समाज में निन्दा और विरोध का ___ मैंने कहा- ये विचार जैन समाज के लिये इतने ।
तूफान, नौकरी से छुड़ाया जाना, जीविका की
चिन्ता, बीमार पत्नी के साथ यह सब बोझ उठाना, कान्तिकारी हैं कि इनसे सारे समाज में तहलका
इतना सब बवंडर उस स्वीकारता के पीछे था जो मच जायगा । जैन समाज-खासकर जैन पंडिन-मुझ
बाद में सब सहन करना पड़ा पर इससे जीवन निखर पर टूट पड़ेंगे। ऐसी अवस्था में मुझे सब का
गया। जिस देवता के चरणों पर यह जीवन चढमा सामना करना पड़ेगा। इसलिये में अपने इन विचारों
चाहिये था वहीं चढ़ गया, जीवन सफल हो गया। पर इतना मनन चिन्तन कर लेना चाहता हूँ कि जिससे में उनके सामने टिक सकू। इसलिये में इन अगर उस दिन बाबू छोटेलालजी से यह पर्वा पर पांच वर्ष और चिन्तन करना चाहता हूँ। न होती और उन्होंने मुझ से स्वीकारता न लेली होती