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मान्यता का मण्डन किया है। इस प्रकार जैनों को छह मान्यतामों का वैज्ञानिक सिद्धान्तों के साथ मेल बैठाते हुए लेखक ने पाठकों से यह निर्णय मांगा है कि प्राज के वैज्ञानिक असंख्य धनराशि खर्च करके एवं दिन रात परिश्रम करके जिन सिद्धान्तों का निर्माण कर रहे हैं वे जैन तीर्थंकरों ने पहले ही प्राज से हजारों वर्ष पूर्व स्थापित कर दिये थे। ऐमी अवस्था में वे केवलज्ञानी थे या नहीं अथवा जैनों का केवलज्ञान केवल एक ढकोसला ही है ? लेखक ने अपने लेख की स्वस्थ पालोचना भी आमंत्रित की है । आज वास्तव में ऐसे ही लेखों की आवश्यकता है। किन्तु खेद है कि इधर जैनों का ध्यान ही नहीं है। जैन प्रति वर्ष लाखों रुपया मेलों-ठेलों में खर्च करते हैं किन्तु अभी तक भी किसी धनी मानी का ध्यान इस ओर नहीं गया कि एक ऐसी वैज्ञानिक प्रयोगशाला की स्थापना की जाय जहाँ प्रयोगों द्वारा जैन मान्यताओं को कसा जावे और वर्तमान वैज्ञानिक अनुसंधानों के साथ उनके साम्य और वैषम्य का पता लगाया जावे। यदि हमें विश्व में जैनधर्म का प्रचार करना है और दुनिया को यह बता देना है कि जैन धर्म पूर्ण रूप से एक वैज्ञानिक धर्म है तो हमें एक न एक दिन ऐसा करना ही होगा। यह कार्य जितना शीघ्र हो सके उतना ही हितकर है।
___ "Essentials of Jaina Metaphysics and Epistemology." लेखकश्री हरिमोहन भट्टाचार्य, एम. ए. (दर्शन एवं संस्कृत)। पदार्थ विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिये केवल स्यावाद अथवा अनेकान्त ही सक्षम है यह लेखक ने बड़े ही तार्किक ढंग से सिद्ध किया है। जैसा कि लेखक ने स्वयं ही कहा है और हम भी उससे सहमत हैं लेखक का इस विषय के अध्ययन और मनन में पर्याप्त शक्ति और समय व्यय हुमा है।
"The Jaina Architecture-Ancient and Mediaeval." लेखक-डा. ज्योति प्रसाद जैन, एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी.। प्राच्य और मध्यकालीन जैन शिल्पकला, स्तूप, गुफा और मन्दिर आदि का अति संक्षिप्त परिचय देते हुए लेखक ने बताया है कि जैनों ने केवल निर्माण ही नहीं किया अपितु इस विषय के ग्रंथ भी लिखे । अर्थात् शिल्पकला के व्यावहारिक और भौतिक दोनों ही पक्षों को जैनों ने समृद्ध किया यह दिग्दर्शन कराना हो लेख का उद्देश्य है।
Religious Syncretism as Revealed in the Jaina Sculpture Art of the Eastern India." लेखक-श्री डी. के. चक्रवर्ती एम.ए.। पूर्वीय भारत की जेन मूर्तिकला के उदाहरण देकर लेखक ने सिद्ध किया है कि प्राचीन समय में भारत में धामिक सहिष्णुता अपने चरमोत्कर्ष पर थी और विभिन्न सम्प्रदायों की मान्यतामों का प्रभाव जैन मूर्ति कला पर भी पड़ा है । लेख चितनपूर्ण है और अपने विषय पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। लेखक स्वयं पश्चिम बंगाल सरकार के अधीन आर्कियोलोजिकल विभाग के अध्यक्ष हैं अतः इस विषय पर उनके निष्कर्ष एक अधिकृत व्यक्ति के निष्कर्ष हैं।
'Mathura-The Centre of Jaina Art." लेखक- श्री मिहिर मोहन मुखो. पाध्याय । मथुरा से प्राप्त जैनकला अवशेषों का परिचय देते हुए लेखक ने बताया है कि बौद्धों