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बाबू छोटेलाल जन स्मृति प्रथ
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साधना कहें तो धनुपयुक्त न होगा। इसके लिए उन्हें बड़े-बड़े मूल्य चुकाने पड़े है। उनमें पत्नी का दिवावमान और व्यापार की क्षति मुख्य है । पर वालों का रोप भी अपना एक स्थान रखता है । उस दिन वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली के एक कक्ष में, मैंने उन्हें अपनी पत्नी की अन्तिम अस्वस्थ दशा की स्मृति में हिलते देखा था। वर्षो पूर्व का एक हृदय उनकी प्राँखों में बार-बार तरल हो उठता था । उन्होंने कहा कि जैन विब्लियोग्राफी के कार्य में में इतना संलग्न रहता था कि अपनी पत्नी के स्वास्थ्य पर ठीक ध्यान न दे पाया । उस मानवी ने इसकी एक क्षण को भी शिकायत न की । मरते समय भी उसने यह ही चाहा कि मेरी साधना पूरी हो पौर
प्रानन्द तथा सुख का अनुभव कर सकूँ । भारतीय नारी की यह प्रतिमा और किस देश में उपलब्ध होगी। यदि बाबूजी उसके ध्यान में द्रवित हो उठने थे तो यह उनका मानवीय रूप ही था । यदि कोई साधक मानव नहीं तो उसकी साधना पक्षाघात मे प्रपीडित रहेगी। जंनधर्म इसी कारण मानव को मोक्ष पाने के योग्य मानता है और किसी को नहीं । साहित्य साधना के मूल गुग्ण भी मानव की मून वृनियों ने ही सम्बद्ध हैं 'ब्रह्मानन्द' और 'ब्रह्मानन्द सहोदर एक ही प्रावार पर टिके हैं। दोनो का मूल एक ही है । बाबूजी ने उसे समझा और अनुभव किया था ।
भारतीय पुरातत्त्व विश्व का एक मूल्यवान अध्याय है। धनेक विदेशी पुरातत्वज्ञों ने उसे समीप से देखा और परखा है । वे उसको प्रशंसा करने से अपने को रोक नहीं सके। उनका मत है कि यदि उसमे से जैन खण्ड पृथक कर दे तो उसका महत्त्व अधूरा रह जायगा । बाबू छोटेलाल जो जैन पुरातत्व के प्रिय विद्यार्थी थे । अन्त तक उसके प्रति उनकी जिज्ञासा सतत जागृत रही इसीलिए विद्यार्थी शब्द का प्रयोग किया, अन्यथा मैने अपनी आँखों म भारत के सर्वोकृष्ट पुरातत्वी को उनकी पादबन्दना करते देखा है अभी उस दिन में उनके
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साथ दिल्ली के नेशनल म्यूजियम में चला गया। उसकी इमारत दिल्ली की शान के अनुरूप ही है । अनेक मूर्ति और स्तम्भों को पार करते हम एक कक्ष में पहुंचे । नितांत सादगी देखी वहाँ और एक बड़ी मेज के सामने कुर्सी पर बैठे सादा मानव के दर्शन किये सदर के कपड़े, बाल उड़ने हुए भात पर आड़ा तिलक, कुछ स्थूल शरीर हम लोगों को देखते ही उनका शरीर अविलम्ब हिला और उन्होंने बाबूजी के चरणस्पर्श किये । परिचय के उपरान्त विदित हुआ कि वे ही वे शिवराम मूर्ति हैं, जिनके पुरातात्विक निवन्ध 'एनसाइक्लोपिडिया ऑव वर्ल्ड भाकियोलाजी में प्रकाशित हुए हैं दुनियाँ के चोटी के विद्वानों ने उन्हे पुनः पुनः पढ़ा है । में आश्चर्य चकित था । जैन चैत्यों के सम्बन्ध में कुछ पुरातात्त्विक जानकारी बढ़ाने गया था वहाँ । जो कुछ जाना वह मेरे यागामी निबन्ध में प्रकाशित होगा | दो घण्टे वहां रहा, अभिभूत -सा, एक विनीय विद्यार्थीमा | भारतीय ज्ञान का वह प्रकाश स्तम्भ कितना अनूठा और विस्मयकारी था । उनकी यह विनम्र स्वीकारोकि उनके सरल हृदय की प्रतीक ही थी कि बापूजी (छोटेलालजी) के टोग ज्ञान में बहुत कुछ कर ही में इस दिशा में आगे बढ़ सका है। तो फिर समीप बैठा दुबला पतला मेरे हृदय में प्रेरणा जसा समाहिन हो उठा। बाबूजी किसी म्यूजियम के क्यूरेटर नहीं बने; किन्तु न जाने कितने क्यूरेटर्स उनके आशीर्वाद के अभिलापी रहे है। इसे शायद बहुत से लोग न जानते हों ।
इसी भांति भारत के प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ टी० रामचन्द्र बाबूजी के प्रति श्रद्धा ही नही, भक्ति-भाव संजोये रहते है । मैंने उन्हें दिल्ली में बाबूजी को सदैव श्रद्धानवत हो प्रणाम करते देखा है। टी० रामचन्द्र एक जंवता हा व्यक्तित्व शोध-खोजों में तपा निज़रा साधक दिनकर कौन प्रभावित न हो। प्रतिमा घोर परिश्रम की गजब कहानी है वे ।