________________
साधुसाध्वी
।। ६१॥
ROSAS!
( वहोरते ) हुए आहारके शुद्धताकी तलाशी करना उसके १० दोष, जो गृहस्थ तथा साधु. दोनोंसे है आवश्यलगतेहें, और ग्रासैषणा ( मंडली ) के ५ दोष, जो आहार-पाणी करते समय लगतेहैं, इस प्रकार सब मिलकर
कीय विचार की
संग्रहः ४७ दोष आहार संबंधी होतेहैं । इनमें से पहले उद्गम के १६ दोष बतातेहें॥ “आहाकम्मुद्देसिय, पूईकम्मे य मीसजाए य । ठवणा पाहुडियाए, पाओयर कीअ पामिच्चे ॥ २ ॥” | परिअदिए अभिहडु,-म्भिन्ने मालोहडे य अच्छिज्जे । अणिसिद्वंऽज्झोयए, सोलसपिंडुग्गमे दोसा ॥३॥"
अर्थः-- साधु या साध्वी के वास्ते सचित्त वस्तुको अचित्त करे, अथवा अचित्त वस्तुको साधुके हैं निमित्त रांधकर तय्यार करना वह 'आधाकर्म ' दोष १, गृहस्थने अपने वास्ते बनाए हुए आहारको साधु है। के वास्ते दही-गुड ( गोल-सकर ) आदिके मिलानसे अथवा फिरसे दूसरी वार छमका-वघार आदि है देकर स्वादिष्ट बनाना वह ' उद्देशिक ' दोष २, आधाकर्म आदि दोष रहित शुद्धमान आहारमें किंचित् । मात्रभी आधाकर्मी आहार मिलाकर वहरावे, अथवा शुद्धमान आहार भी आधाकर्मी आहारसे खरडी हुई।
Jain Education Inte
2010_05
For Private Personal use only
ICAlwww.jainelibrary.org