Book Title: Avashyakiya Vidhi Sangraha
Author(s): Labdhimuni, Buddhisagar
Publisher: Hindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 86
________________ EXER 1८२॥ साधुसाध्वी यानि १६ अंगुल समचोरस होतीहै, अथवा नाकमें धूल न जानेके लिये काजा निकालते हुए और दुर्गंधके । आवश्य है कारण नाकमें रोग पैदा न होनेके वास्ते कारणवश अधिक दुगंधिवाली जगहमें ठल्ले बैठते हुए नाक और मुख कीय विचार पर मुहपत्ति बांधना चाहिये, इस वास्ते मुहपत्ति तिखुणी करके गरदनके पिछली तरफ दोनों छेडोंसे गांठ संग्रहः लगा सके उतनी लंबी-चौडी समचोरस करनी चाहिये। परन्तु ढूंढिये नाक खुला रखकर हमेशां बाँधी रखते हैं। (१) यह सर्वथा शास्त्र विरूद्ध है। १३ मात्रक नामका एक पात्रा होताहै जिसमें गृहस्थके पास आहारादिक 8 लेके झोलामें रहे हुए बड़े पात्रमें डाला जाताहै, अथवा गुरु या विमार साधुके वास्ते घृतादिक उत्तम चीज ६ लाई जाती है, एक साधुके आहारका समावेश हो सके उतना वडा यह मात्रक होताहै। ४१ चोलपट्टा-चार हाथ है। लंबा होताहै, वृद्धोंके लिये दो हाथका भी लंबा रखा जा सकताहै। ये १४ औधिक उपकरण कहे जाते हैं, इनके सिवाय संथारिया-उत्तरपट्टा-दंडा वगेरह औपग्रहिक उपकरण कहाते हैं, संथारिया और उत्तरपट्टा लंबाइमें अढाइ हाथ और चौडाईमें एक हाथ चार अंगुल होता है, १-इसका विशेष खुलासा आगमानुसार मुहपत्ति का निर्णय और जाहिर उद्घोषणा नं० १-२-३ में देखो। CISESECSC ॥८२॥ Jain Education Inter 2010-05 For Private & Personal use only Clww.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140