Book Title: Avashyakiya Vidhi Sangraha
Author(s): Labdhimuni, Buddhisagar
Publisher: Hindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalaya

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Page 135
________________ साधुसाच्ची 31X3-1-4 आवश्य XXXXXXXXXXX वंदित्ता पवेयह' ॥२॥व्रतग्राही 'इच्छं' खमासमण देकर कहे 'इच्छाकारेण तुम्भेहिं अम्हं सम्मत्तसामाइयं सुयसामाइयं देसविरइसामाइयं आरोवियं ? ' गुरु कहे 'आरोधियं आरोवियं आरोवियं खमासमणाणं हत्थेणं सुत्तेणं । कीय विचार अत्येणं तदुभएणं सम्मं धारणीयं चिरं पालणीयं गुरुगुणेहि वड्ढहि नित्थारपारगो होह' इस प्रकार कहते हुए है। संग्रहः तयाहीके शिरपर वासक्षेप डालें, तब व्रतग्राही 'इच्छामो अणुसहि' ऐसा कहे ॥ ३ ॥ फिर खमासमण देके कहे ' तुम्हाणं पवेइयं संदिसह साहणं पवेएमि ? ' गुरु कहे ' पवेयह ' ॥ ४ ॥ पीछे व्रतग्राही इच्छं। खमासमण देके नवकार गुणताहुआ नंदी ( स्थापनाचार्य ) को तीन प्रदक्षिणा देवे, तीनों प्रदक्षिणा में गुरु तथा संघ ' गुरुगुणेहिं वड्ढहि नित्थारगपारगो होह' कहते हुए व्रतग्राहीके शिरपर तीनवार वासक्षेप डालें ॥ ५॥ पीछे व्रतग्राही खमासण देके कहे 'तुम्हाणं पवेइयं साहणं पवेइयं संदिसह काउस्सग्गं करेमि ? , गुरु कहे 'करेह' ॥ ६ ॥ व्रतग्राही इच्छं खमासण देकर सम्मनसामाइय सुयसामाइय देसविरइसामाइय आरोवणत्यं करोमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०' कहके एक लोगस्सका "सागरवरगंभीरा" तक काउस्सग्ग करके प्रगट लोगस्स कहे ॥७॥ इति सात थोभा वंदना । कोईभी तपस्या उचरे तबभी इसी तरह सात थोभा 47-4-2074 Jain Education Inter 2010_05 For Private & Personal use only Alwww.jainelibrary.org

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