Book Title: Avashyakiya Vidhi Sangraha
Author(s): Labdhimuni, Buddhisagar
Publisher: Hindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalaya

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Page 134
________________ X - आवश्य साधुसाध्वी ब्रतों का में पालन करूंगा ॥ १०।११।१२।१३॥ ॥ १३०॥ सर्व तपस्याका दंडकपाठ-अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे अमुगतवं ® उवसंपजित्ताणं विहरामि, तंजहा ,कीय विचार संग्रहा दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ, दव्वओ णं अमुगतवं , खित्तओ णं इत्थ वा अन्नत्थ वा, कालओणं जाव है। परिमाणं, भावओ णं जाव गहेणं न गहिज्जामि, छलेणंन छलिजामि, सन्निवाएणं नाभिभविजामि, अन्नण है, है केणवि रोगातंकेइ परिणामवसेणं जाव एसो मे परिणामो न परिवडइ ताव मे एस तवो, अन्नत्थ रायाभिओगेणं है, है गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकंतारएणं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं है, महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ॥ १४ ॥ सात थोभा वंदना-इसतरह व्रतारोपण किये बाद व्रतग्राही खमासमण देकर मुहपत्ति पडिलेहे और दो वांदणा देकर खमासमण देके कहे 'इच्छाकारेण तुम्हे अम्हं सम्मत्तसामाइयं सुयसामाइयं देसविरइसामाइयं । आरोवह' तब गुरु कहे 'आरोवेमो' ॥१॥ व्रतग्राही 'इच्छं' खमासमण देकर कहे 'संदिसह किं भणामो?' गुरु कहे | ॥ १३ ॥ *** यहां पर जो तप ग्रहण करना हो उसका नाम बोलना Jain Education Internal 010_05 For Private & Personal use only bww.jainelibrary.org

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