Book Title: Avashyakiya Vidhi Sangraha
Author(s): Labdhimuni, Buddhisagar
Publisher: Hindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 128
________________ साधुसाध्वी गुरु कहे 'करावेमो' इच्छं खमासमणा देकर सम्मत्तसामाइय सुयसामाइय देसविरइसामाइय आरोवणत्थं करेमि आवश्य॥१२४॥ काउसग्गं अन्नत्थ०' कहकर " सागरवरगंभीरा" तक एक लोगस्सका काउसग्ग करके प्रगट लोगस्स कहे, कीय विचार बाद खमा० देकर व्रतग्राही कहे 'इच्छाकोरण तुम्हे अम्हं सम्मत्तसामाइय सुयसामाइय (१) देसविरइसामाइय है। संग्रह सुत्तं उच्चरावेह ' गुरु कहे ' उच्चरावेमो' व्रतग्राही 'इच्छं' कहकर एक एक व्रतके आलावेकी शुरुमें तीन है। तीन नवकार गिणकर थोडासा नमाहुआ जैसे गुरु पाठ उच्चरावे वैसे गुरुके साथ खुदभी मनमें पाठ कहता हुआ समकितसामायिक देसावेरतिसामायिकका दंडक क्रमसे तीन तीन वार उच्चरे गुरुभी समकित आदि एक एक व्रतके आलावा तीन तीन वार उच्चराये, बाद व्रतग्राही के मस्तक पर वासक्षेप डाले । समकित-18 दंडकपाठ यथा ___ अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे मिच्छत्ताओ पडिकमामि, सम्मत्तं उवसंपजामि, तंजहा-दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ, दव्वओणं मिच्छत्तकारणाई पच्चक्खामि, सम्मत्तकारणाइं उवसंपन्जामि, नो मे कप्पइ अजप्प- * ॥ १२४ ॥ (१) यद्यपि युतसामायिकका आलावा जुदा नहीं है तो भी पाठ भंग न होनेके लियेथुतसामायिकका भी नाम बोलना विधिप्रपामें कहा है। Jain Education Inter 2 010_05 For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140