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साधुसाध्वी
आवश्य
।।८९॥
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अर्थ- साधु खुद अपने मुखसे घरधणीके पास उतरने योग्य मकान आदिकी याचना करे, दूसरे गृहस्थ आदिके मुखसे न करावे १, मतिमान-साधु रजा लेकर उतरे बाद उसी जगहमेंसे यदि तृणभी लेना है कीय विचार हो तो घरधणीकी आज्ञा सुनकर लेनेका उद्यम करे, विना आज्ञाके न लेवे २, साधु अवग्रह (मकान आदि) की संग्रहः याचना सदा स्पष्ट मर्यादासे करे, यानि एक वार घरधणी ने दिये हुए अवग्रहमें भी बीमारी आदिके कारण ठल्ले 2 माने जानेके लिये अथवा हाथ पग धोनेके लिये स्थानकी याचना घरधणीके पास फिरसे करे ३, आहार-पाणी करना हो अथवा कपडा तथा पात्रा आदि कोई भी उपकरण नयेसर वापरनेके वास्ते निकालना हो तो गुरु । अथवा जो बडे हों उनकी आज्ञा विना नहीं करना, यदि आज्ञा विना करे तो गुरुअदत्त दोष लगे ४ जिसमें उतरना हो उसमें पहलेसे उतरे हुए अपने समान आचार वाले साधुओंकी रजा लेकर उतरना और उस मकान माहिली हर एक चीजभी उनकी रजा लेकर बापरनी ५ । चौथे महाव्रतकी पांच भावना
आहारगुत्ते अविभूसियप्पा, इत्थी न निज्झाय न संथवेज्जा । बुद्धे मुणी खुड्डकहं न कुजा, धम्माणुपेही संधए बंभचेरं ॥ ४ ॥
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