Book Title: Avashyakiya Vidhi Sangraha
Author(s): Labdhimuni, Buddhisagar
Publisher: Hindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalaya

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Page 96
________________ ॥९२॥ साधुसाध्वी दंडी प्रमार्जे ११, बाद जीमणे हाथमें मुहपत्ति लेकर साधु डाबे गोडेको तथा श्रावक चरवलेकी दशियां तीनवार प्रमार्जे १४, खडे होकर आसन के पिछली तरफ जाते हुए लारेकी भूमि तीन वेला प्रमार्जे १७, इस तरह सब जगह के मिलानेपर १७ वेला प्रमार्जन होता है, इसीका नाम संडाशक प्रमार्जन (संडासे पूंजना) है । वांदणे देते हुए पहले वांदणे में १७, और दूसरेमें १४ प्रमार्जना होती हैं, क्योंकि दूसरी वेला वांदणे देकर खडे हुए बाद आसनके पिछली तरफ नहीं जाते, किंतु उसी जगह खडे रहतेहैं, जिससे पिछली भूमि प्रमार्जनेके तीन संडाशक छूट जाते हैं, इसी प्रकार खमासमणा देना, अभ्भुट्टिया खमाना आदिमें भी चउदे ही संडाशक पूंजे जाते हैं ॥ १९ असज्झाय- विचार - Jain Education Intern असज्झायके मुख्यतया आत्मसमुत्थ (साधु साध्वियोंसही होने वाला) और परसमुत्थ (गृहस्थ आदिसे होने वाला) ये दो भेद हैं, १ आत्मसमुत्थ के भी दो भेद हैं- १ - साधुके या साध्वीके ठोकर वगैरह लगनेसे अथवा नासूर भगंदरादिकमेंसे रुधिर निकले तो उपासरेसे सो हाथ दूर जाकर पाणीसे धोकर पट्टाबांधे, बाद उसको और दूसरोंको सूत्र पढना पढाना कल्पता है, यदि वह पट्टा रूधिरसे भींजजाय तो उसी पट्टेके उपर राख 2010 05 For Private & Personal Use Only आवश्यकीय विचार संग्रह: ॥ ९२ ॥ www.jainelibrary.org.

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