________________
॥ ७७ ॥
साधुसाध्वी शल्य-मिच्छादंसण शल्य परिहरु ३-१५ " बोलते हुए हृदय (छाती) के बीच में जीमणी बाजु तथा डाबी बाजु प्रमार्जन करे, बाद जीमणे हाथमें मुहपत्ति लेकर “क्रोध-मान परिहरु २ -१७” बोलते हुए डाबे खंधे (१) | उपर तथा डाबी कक्षा (कांख) के नीचली तरफसे डाबी पीठ उपर प्रमार्जन करे, बाद डाबे हाथमें मुहपत्ति लेकर " माया - लोभ परिहरु २ - १९ " बोलते हुए जीमणे खंधे उपर तथा कक्षा (कांख ) के नीचली बाजुसे जीमणी पीठ उपर प्रमार्जन करे, बाद “पृथ्वीकाय - अप्पकाय - तेउकाय रक्षा करुं ३ - २२” बोलते हुए जीमणे हाथमें लिये हुए ओघेसे जीमणे पगके और " वाउकाय - वनस्पत्तिकाय - त्रसकाय रक्षाकरुं ३ - २५ ” बोलते हुए डावे पगके बीच में जीमणी तरफ तथा डाबी तरफ प्रमार्जन करे, इस तरह अंगकी २५ पडिलेहण होती हैं,
(१) — यद्यपि साधुविधिप्रकाश' तथा 'प्रवचनसारोद्वार' की टीकामें लिखा है कि जीमणेहाथमें रखी हुई मुहपत्ति से जीमणा संघा और डाबे हाथमें रखी हुई मुहपत्तिसे डाबा बंधा प्रमार्जन करे, बाद डाबे हाथमें रही हुई मुहपत्ति से जीमणी कांस्तके नीचेसे जीमणी पीठ प्रमार्जे, बाद जीमणे हाथमें रही हुई मुहपत्तिसे डाबी कांखके नीचेसे डाबी पीठ प्रमार्जे, परंतु पडिक्कमणे आदिकी पुस्तकों में (जैसे हमने बताया है ) ऐसेही लिखा है और वोलभी २-२ साथही है, इससे कुछ सुविधा (सद्दलाइ ) भीहै, इस वास्ते हमने यही क्रम रखा है ।
Jain Education Inter 2010_05
For Private & Personal Use Only
आवश्य
कीय विचार
संग्रह:
॥ ७७ ॥
www.jainelibrary.org